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२७० | सद्धा परम दुल्लहा
कर्म हावी हो जाते हैं; कर्म उस आत्मा को अशुद्ध बनाकार पराधीन कर देते हैं ।
कर्मों का कर्त्ता कौन, भोक्ता कौन ?
प्रश्न होता है, कर्म तो पुद्गल स्वभाव वाला अजीव द्रव्य है, उसके साथ चैतन्य स्वरूप जीवद्रव्य कैसे सम्बन्ध कर लेता है ? जब चेतन ( आत्मा ) जड़कर्मों के साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता, तव कर्म का कर्त्ता और उसका फल- भोक्ता कौन और कैसे होता है ?
जैनदर्शन इसका दो दृष्टियों से उतर देता है । व्यवहारनय की दृष्टि से तो आत्मा ही कर्मों का कर्ता और उसका फलभोक्ता है । किन्तु व्यवहार में आत्मा कर्मों का कर्त्ता तभी माना जाएगा, जब वह कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) और योग ( मन-वचन काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति) के वश में हो । जब आत्मा कषाय और योगों से सर्वथा रहित शुद्ध हो जाता है, तब कर्मों की अपेक्षा से आत्मा अकर्त्ता माना जाएगा। अर्थात् - उस निर्विकार अवस्था में कर्मों का कर्त्ता द्रव्यात्मा नहीं है, कषायात्मा और योगात्मा है । द्रव्यात्मा यानी परमशुद्ध मुक्त परमात्मा तो ऐसी स्थिति में स्व-स्वभाव का कर्ता है, कर्म आदि परभावों का नहीं । जीव जब कर्मों से सर्वथा रहित हो जाता है, तब वह किसी भी प्रकार से कर्मों का कर्त्ता नहीं हो सकता, न ही अकेला कर्मपुद्गल कर्त्ता हो सकता है, क्योंकि वह स्वयं जड़ है । अतः संसारी जीव और कर्मपुद्गलों का जब तक संयोग तक व्यवहारनय की दृष्टि से संसारी जीव को ही गया है ।
सम्बन्ध रहता है, तब कर्मों का कर्त्ता कहा
शुद्ध निश्चय की दृष्टि से आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्त्ता नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्यकर्म (कर्म परमाणु पुद्गलरूप) पौद्गलिक हैं । अतः वे पर हैं, उनका कर्त्ता चेतन आत्मा नही हो सकता । प्रत्येक द्रव्य स्व ( निज) भाव काकर्ता हो सकता है, परभाव का नहीं । अतः शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा अपने भावों - अपने निजी गुणों का कर्ता है । तथा अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से भी आत्मा राग-द्वेषादि भावों या मिथ्यात्वादि पंचबिध कर्मों का कर्ता है । इन दोनों दृष्टियों से आत्मा कर्मपुद्गल का कर्त्ता नहीं ठहरता ।
मिथ्यादर्शन आदि भावकर्मों का उदय होने से उन तथाविध परिगामों-अध्यवसायों के द्वारा आत्मा में जो कार्मणवर्गणा के पुद्गल आते ( आस्रव होता) हैं, जो कि रागद्व ेष का निमित्त पकार आत्मा के साथ बँध
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