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२६२ ] सद्धा परम दुल्लहा चिपक जाते हैं। वे ही कर्म कहलाने लगते हैं। संक्षेप में यों कह सकते हैं कि आत्मा की शुभाशुभ त्रियोगात्मक प्रवृत्ति से आकृष्ट एवं कर्मरूप में परिणत होने वाले (कर्मवर्गणा के) पुद्गल, कर्म हैं। शुद्ध आत्मा के साथ कर्म का संयोग क्यों ?
जैनदर्शन निश्चयनय से आत्मा को शुद्ध (कर्मादि-उपाधि-रहित) मानता है, तब आत्मा पर कर्म-कालिमा कैसे और क्यों लगती है ? यदि शुद्ध आत्मा पर भी कर्ममल लगने लगे, तब तो सिद्ध-मुक्त परमात्मा पर भी वह लग सकता है । परन्तु यह जान लेना चाहिए, कि सिद्ध परमात्मा कर्मों को उसी तरह बिलकुल भस्म कर देते हैं, जिस तरह बीज को जलाकर उसके उगने की शक्ति को नष्ट कर दिया जाता है । इस दष्टि से कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर कर्ममुक्त शुद्ध आत्मा के साथ पुनः उनका संयोग हो ही नहीं सकता।
। परन्तु अशुद्ध आत्मा पर कर्म-मैल लगते हैं, वे मिथ्यात्व आदि कारणों से रागद्वेष वश लगते हैं, अकारण नहीं । कर्ममल आत्मा के लगता है, इसी कारण तो उसे धोने हेतु तप, संयम, त्याग, समत्व, प्रत्याख्यान आदि की साधना की जाती है। कर्म पहले या आत्मा ?
ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि कर्म पहले हैं या आत्मा ? जैन सिद्धान्तमर्मज्ञ कहते हैं कि कर्म और आत्मा दोनों अनादि हैं। बीज पहले या वृक्ष ? मुर्गी पहले है या अण्डा ? इत्यादि पदार्थों में जैसे पहले-पीछे का सवाल नहीं उठता, उसी प्रकार आत्मा और कर्म इन दोनों में पहले पीछे का प्रश्न नहीं उठता।
नित्य आत्मा को पहले या पीछे माना जाएगा तो वह उत्पन्न-विनष्ट होने वाला हो जाएगा। यदि कर्म को पहले माना जाए तो इसका अस्तित्व आत्मा के द्वारा किये बिना सिद्ध नहीं हो सकता। इसीलिए कर्मशास्त्रियों ने आत्मा और कर्म दोनों के सम्बन्ध को अनादि माना है। दोनों का अनादि सम्बन्ध कैसे टूटे
यहाँ प्रश्न होता है कि जब कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है तो उसे तोड़ा कैसे जाएगा ? क्योंकि अनादि सम्बन्ध का तो नाश नहीं हो
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