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________________ आस्तिक्य का तृतीय आधार : कर्मवाद | २५५ कर्म ही इन सबका मूल कारण है। भगवान् महावीर जैसे महान् अध्यात्मवादी, वीतरागी, पवित्रतम महापुरुष के कानों में अकस्मात् किसी व्यक्ति ने कील ठोक दी, उसका मूल कारण पूर्वकृत कर्म ही तो था। ध्यानस्थ अजातशत्रु गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर सोमिल विप्र द्वारा वैरभाव से प्रेरित होकर मिट्टी की पाल बांधकर खैर के धधकते अंगारे रखे जाने और असह्य यातना देने में पूर्वकृत कर्म ही कारण थे। मगालोढ़ा को राजा के पुत्र होने पर भी बेडौल शरीर, अव्यवस्थित अंगोपांग, कुरूपता एवं दुर्गन्धयुक्त वातावरण के कारण भयंकर कष्टों की प्राप्ति उसके पूर्वकृत अशुभकर्मों के कारण ही हई थी। और तो और वर्तमान में किसी प्रकार के शुभाशुभ कर्म किये बिना गर्भस्थ शिशु का गर्भ में ही गल जाना, गर्भ में ही अनुकूलप्रतिकूल फल प्राप्त हो जाना, पूर्व कर्म के हो कारण तो हैं ? ___ एक ही माता के उदर से एक साथ एक ही समय में पैदा हुए दो (युगल) बालकों के स्वभाव, सुख-दुःख, तीव्र-मन्द-बुद्धि तथा स्वस्थता-अस्वस्थता आदि अनेक विसदृशताओं के पीछे क्या कारण हैं ? अनपढ़ मातापिता को प्रतिभाशाली बुद्धिमान पुत्र तथा शिक्षित माता-पिता को मुर्ख, अनपढ़ एवं असंस्कारी पुत्र प्राप्त होना, इत्यादि विषमताएँ क्यों ? एक ही छात्रावास में सबके लिए पढ़ने, रहने तथा अध्यापन की समान व्यवस्था, सुविधा एवं परिस्थिति होते हए भी सहपाठी छात्रों की बौद्धिक क्षमता, शारीरिक शक्ति, एवं वाचिक सामर्थ्य में न्यूनाधिकता क्यों ? एक छात्र को अत्यधिक परिश्रम करने पर भी परीक्षा में सफलता नहीं मिलती, जबकि दूसरा छात्र थोड़ी-सी मेहनत करने पर ही परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता है; एक किसान को अपने खेत में बहुत ही सावधानी और विवेकपूर्वक बीज बोने पर भी पर्याप्त धान्य नहीं मिलता, जबकि दूसरे किसान को थोड़ीसी मेहनत से बीज बोने पर प्रचुर धान्य प्राप्त होता है; इत्यादि ज्वलन्त प्रश्नों के यथोचित समाधान के लिए कर्मवाद को मानना ही पड़ेगा। ... कर्मवाद के स्थानापन्न वाद इस प्रकार कर्मों के विभिन्न प्रकार, उनके आगमन और बंध के विविध कारण, बंध और फलभोग (उदय) में तरतमता, उनकी अवधि, उनको क्षय करने और रोकने के विविध उपाय आदि कर्मों से सम्बन्धित सांगोपांग, तर्कसंगत, सूक्ष्म एवं गम्भीर विवेचन जैनदर्शन ने किया है। कुछ धर्म या दर्शन कर्म को मानते हैं, किन्तु इतना व्यवस्थित एवं सूक्ष्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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