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आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद
साधक के जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष या परमात्मपद को प्राप्त क ना है । यह तभी हो सकता है, जब आत्मा पर उसकी उत्कृष्ट आस्था हो । आत्मा पर उत्कृष्ट आस्था रखना ही आत्मवाद है। आत्मवाद भी सर्वांगीणरूप से जीवन में तभी ओत-प्रोत हो सकता है, जब उसके साथ लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद, ये तीनों शृंखला की तरह जुड़े हुए हों । लोकवाद आस्तिक्य का द्वितीय आधार है।
लोकवाद क्या है ? लोक का स्वरूप, संस्थिति, प्रकार, लोक कर्त त्व-अकृर्तृत्व का निर्णय, लोक का द्रव्यादि-चतुष्टय की दृष्टि से विचार, आत्मा से लोक की मान्यता का सम्बन्ध तथा लोक की सीमा, लोकगत मुख्य द्रव्य, इत्यादि के सम्बन्ध में लोक को जानना-मानना लोकवाद है।
इसी सन्दर्भ में लोक से सम्बन्धित यथार्थ जानकारी भी आवश्यक है कि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला यह लोक (जगत्) इतना ही है ? या इसके नीचे-ऊपर भी कुछ है ? लोक की सीमा कहाँ से कहाँ तक है ? उसका आदि अन्त है या नहीं ? आदि है तो कब से और अन्त है तो कब तक ? यह लोक किन-किन वस्तुओं पर अवस्थित है ? अथवा इस लोक में मुख्य द्रव्य कौन-कौन से हैं ? उनके गुण-धर्म तथा स्वरूप क्या-क्या हैं ? लोकगत द्रव्यों के प्रति अपनी दृष्टि, धर्म क्या है ? आत्म-गुणवृद्धि के लिए
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