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________________ आस्तिक्य का मूल : आत्मवाद । २३१ को जानता है उसी पर से वह सारे संसार की आत्माओं के सुख दुःखादि को जान जाता है। आत्मवादी परमात्मवादी अवश्य होता है जो आत्मवाद में आस्थावान् है, वह परमात्मा के प्रति अवश्य आस्था वान् होगा, क्योंकि आत्मा का चरमोत्कृष्ट रूप ही परमात्मा है। अथर्ववेद में भी कहा गया है-- ये पुरुषे ब्रह्म विदुः ते विदुः परमेष्ठिनम् । जो पुरुष आत्मा को जान लेते हैं, वे परमात्मा को भी जान जाते हैं। आत्मा का अत्यन्त शुद्ध रूप ही परमात्मा है। इसलिए परमात्मा पर विश्वास उतना ही आवश्यक है, जितना आत्मा पर । आत्मा को मानकर भी जो व्यक्ति परमात्मा को नहीं मानता, उसका उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता। अगर उसे वीतरागता या सर्वकर्ममुक्ति का लक्ष्य प्राप्त करना है, तो उसे वीतराग परमात्मा, जीवन्मुक्त अरिहन्त या सिद्ध प्रभु को आदर्श रूप में सामने रखना ही होगा, उन पर विश्वास रखकर उनके द्वारा अभ्यस्त या प्रशित मार्ग पर चलना ही होगा। ऐसी स्थिति में अरिहन्त या सिद्ध भगवान् पर श्रद्धा-भक्ति रखना अनिवार्य होगा। केवल आत्मा पर आस्था होने मात्र से उत्कृष्ट आस्था का बीज अंकुरित एवं पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पाता। परमात्मा के प्रति उत्कृष्ट आस्था की प्रक्रिया परमात्मा सिद्ध-बुद्ध मुक्त हैं. अथवा जीवन्मुक्त वीतराग अरिहन्त हैं । ऐसे परमात्मा के प्रति आस्था और अनन्य निष्ठा, भक्ति एवं श्रद्धा रखना ही परमात्म-विश्वास है । परमात्मा के प्रति ऐसी उत्कृष्ट आस्था तभी प्रकट हो सकती है, जब सर्वप्रथम अपने हृदय में उनके अस्तित्व का भान हो, तदनन्तर हृदय में उन्हें आसन देना और उनकी उपसना करना। साधक जब यह बात हृदयंगम कर लेगा कि आत्मा और परमात्मा में निश्चयनय की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, व्यवहारनय की दृष्टि से यदि कोई अन्तर है तो यही है कि परमात्मा समस्त कर्मों से मुक्त, पूर्ण शुद्ध और सिद्ध हैं; और सामान्य आत्मा अभी कर्मों से लिप्त है, इसलिए मुक्त नहीं है, विकारों के कारण अशुद्ध है, पूर्णज्ञान न होने से सर्वथा बुद्ध नहीं है और ज्ञानादि की पूर्णता तक न पहुँचने के कारण सिद्ध नहीं है। किन्तु ऐसी एक अवस्था अवश्य है, जिसे पाकर आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, शुद्ध, परमात्मा बन सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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