SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ | सद्धा परम दुल्लहा अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मुर्गी आदि का अंडा संकीर्ण अंधेरी कोठड़ी के समान अपनी खोली फोड़कर बाहर निकलता है, तभी से उसके वास्तविक जीवन का प्रारम्भ होता है, उसी प्रकार "स्व" की अधेरी कोठड़ी में बन्द आत्मा जब उसमें से निकलकर 'सर्व' का विचार करने लगता है, तभी से उसके आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ होता है । धर्म का प्रारम्भ : परहित का विचार करने से अपने हित एवं सुख-दुःख के समान दूसरों के हित और सुख-दुःख का विचार आने पर ही व्यक्ति के जीवन में सच्चे धर्म का प्रारम्भ होता है । मुझे ही सुख मिले, दूसरों का चाहे जो हो, यह वृत्ति तो पशु-पक्षियों में प्रायः होती है। मनुष्य में भी अगर यह स्वार्थवृत्ति हो, दूसरों के हित या सुख-दुःख का विचार न करके अपने ही संकीर्ण स्वार्थ और सुख-दुःख को महत्व देने की वृत्ति - - प्रवृत्ति हो, तो वह भी पशुवृत्ति ही समझनी चाहिए | केवल 'स्व' का ही विचार तो जीव को अनादि काल से मिला हुआ है, वही सब पापों का बीज है, वही संकीर्ण स्वार्थवृत्ति अधर्म का मूल है । समस्त पाप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संकीर्ण स्वार्थवृत्ति में से ही पनपते हैं । आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का जाल भी संकीर्ण स्वार्थ के इसी केन्द्र के आसपास बिछता है । किसी भी पाप के मूल की खोज करेंगे तो आपको यही संकीर्ण 'स्व' का विचार ही प्रतीत होगा । पापवृत्ति और पाप प्रवृत्ति को निर्मूल करना हो तो इस संकुचित स्वार्थवृत्ति के मिथ्यादर्शन का कांटा अन्तर् से निकालना ही होगा । इस संकुचित स्वार्थवृत्ति पर चोट पड़ने पर ही, अर्थात् – स्वार्थवृत्ति मन्द होने पर ही हृदयभूमि में धर्म - वृक्ष अंकुरित होता है । 'स्व' की संकुचित स्वार्थवृत्ति को 'सर्व' में परिणत करने पर ही सच्चे माने में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, दया, अनुकम्पा, विनय, नम्रता, ऋजुता, पवित्रता, संयम, त्याग, तप आदि सद्धर्मों का पालन हो सकता है । दूसरों को अपना और अपने जैसा मानने, उनके हित, सुख-दुःख या जीवन को अपना हित, सुख-दुःख या जीवन समझने पर ही व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह, ईर्ष्या, दम्भ, छल, ठगी, मिथ्यात्व, क्रोध, अहंकार, आदि पापों को करने से रुक सकता है । दूसरे प्राणियों को आत्मीय मानने तथा उनके कष्ट या संकट को अपना कष्ट या संकट समझने पर कौन किस की हिंसा या चोरी करेगा ? कौन किसके साथ झूठ या व्यभिचार सेवन करेगा ? कौन अत्यन्त जरूरी साधनों से अधिक परिग्रह रखकर या १. यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' नहीं, परन्तु 'स्वार्थ' अर्थात् -- स्व-शरीर और उससे सम्बन्धित अन्य बातों को समझना चाहिए ।' -सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy