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१९२ | सद्धा परम दुल्लहा
यह है यथार्थ निर्वेद का क्रम ! परन्तु वर्तमान युग में यथार्थ निर्वेद के क्रम से अनभिज्ञ लोग परिस्थितिजन्य विरक्ति को निर्वेद कह देते हैं। साधारण से साधारण अज्ञ कहलाने वाले अथवा स्वयं को समझदार कहलाने वाले व्यक्ति के जीवन में ऐसा कच्चा और अस्थायी निर्वेद कई बार आता है। मान लीजिए, कोई व्यक्ति भोजन करने बैठा है। उसी समय किसी विश्वस्त व्यक्ति ने आकर कहा-इस भोजन में जहर मिला हुआ है। ऐसा सुनने पर क्या वह व्यक्ति उस भोजन को करेगा? भले ही वह भोजन कितना ही सरस, स्वादिष्ट और पौष्टिक हो चाहे उस व्यक्ति को कितनी ही कड़ाके की भूख लगी हो ? निष्कर्ष यह है कि भोजन में विष मिश्रित होने का ज्ञान होने पर उस व्यक्ति को उक्त भोजन के प्रति निर्वेद हो जाता है। परन्तु ऐसा निर्वेद तो सांसारिक लोगों में कई कारणों से कई बार होता है । परन्तु वह स्थायी या सच्चा निर्वेद नहीं होता । जब संवेग के साथ निर्वेद होता है, तभी वह स्थायी और सच्चा होता है । संवेग के साथ निर्वेद-सम्पन्न व्यक्ति विष-मिश्रित भोजन की तरह संसार के देवी और मानुषी कामभोगों विषय-सुखों को विष समझकर त्याग करने से नहीं हिचकिचाता। ऐसा निर्वेद ही सच्चा और स्थायी है। वह विषयान् विषवत् त्यज--विषयों को विष के समान त्यागो, इस मंत्र को लेकर चलता है। सच्चा निर्वेद.वैराग्य के रूप में
सच्चा निर्वेद मोक्ष-प्राप्ति में बाधक वस्तुओं के प्रति होता है, इस लिए वह संवेगपूर्वक ही होता है। आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में इसे निश्चल वैराग्य के रूप में ही प्रस्तुत किया है
देहे भोगे निन्दिते जन्मवासे कृष्टेष्वाशुक्षिप्तबाणास्थिरत्वे ।
यद् वैराग्यं जायते निष्प्रकम्प, निर्वेदोऽसौ कथ्यते मुक्ति हेतुः । अर्थात्--इस निन्दित (वृणित) शरीर तथा सांसारिक विषय-भोगों के प्रति एवं शीघ्र फेंके हुए बाण के समान अस्थिर व क्लेश रूप संसारवास के विषय में जो निष्कम्प निश्चल वैराग्य उत्पन्न होता है, उस मोक्ष के कारण को निर्वेद कहते हैं।
निर्वेद उस विरक्ति का नाम नहीं, जो क्षणिक हो, चंचल हो, भय और प्रलोभन आते ही जो छूमंतर हो जाए, अपितु जो विरक्ति किसी के दवाव, भय, प्रलोभन से पैदा न होकर सांसारिक कामभोगों, शरीरादि तथा शरीर से सम्बन्धित मनोज्ञ प्रिय सजीव-निर्जीव पदार्थों एवं संसार निवास
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