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________________ १८० | सद्धा परम दुल्लहा सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र एवं रानी मृगावती का पुत्र मृगापुत्र दिव्यभोगों में अनुरक्त था, परन्तु एक दिन महल के गवाक्ष से ही राजमार्ग पर शान्त एवं एकाग्रचित्त से जाते हुए मुनि को देखकर विचार हुआ"कितने शान्त, निःस्पृह, एवं सन्तुष्ट - सुखी ये मुनि हैं। मैंने ऐसा रूप पहले कभी देखा है ।" इस प्रकार चिन्तन की गहराई में उतरते-उतरते मृगापुत्र को पूर्वजन्म स्मरण हो आया । सोचने लगे 'अरे ! मैं कहाँ में फँस गया । मुझे तो मोक्षसुख के लिए पुरुषार्थ करना था ।" का स्वाद फीका पड़ गया, मोक्ष सुख की चाह तीव्र हो गई। आज्ञा प्राप्त करके मृगापुत्र दीक्षित हो गए । 11 विषय - सुखों बस, विषयों माता-पिता से वज्रकुमार पालक माता के यहाँ पालने में लेटे-लेटे साध्वियों के मुख से उच्चारण किये जाने वाले शास्त्रों का श्रवण करते थे । श्रवण करते-करते ही उन्हें कई शास्त्र कण्ठस्थ हो गए थे । शास्त्र - चिन्तन के प्रभाव से वज्रकुमार के हृदय में संवेग उत्पन्न हुआ । वे संसार की मोहमाया में कतई फँसना नहीं चाहते थे । इसी कारण जब उनके सामने उनकी जन्मदात्री माता ने खिलौने आदि रखकर अपनी ओर उन्हें खींचना चाहा तो वे उस ओर तनिक भी आकर्षित नहीं हुए, और अपने पिता धनगिरिमुनि ने उनके समक्ष रजोहरण, प्रमार्जनी आदि उपकरण रखे तो तपाक से उन्हें लेकर झूमने लगे । मोक्ष सुख की तीव्र अभिलाषा (संवेग) से प्रेरित होकर वज्रमुनि ने बाल्यवय में दीक्षा ली। वे जिनशासन प्रभावक महान् आचार्य हुए। इस प्रकार मृगापुत्र, वज्रकुमार आदि महापुरुषों को मुनिदर्शन एवं शास्त्रश्रवण आदि से संवेग हुआ 1 सरखेज निवासी जीवनजीभाई भावसार के सुपुत्र श्री धर्मदास जी बचपन में ही खेलते-खेलते संतों के पास जा पहुँचते और सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कर लेते । वे आठ नौ वर्ष की आयु में सिद्धान्त के ज्ञाता होकर अपना मत अभिव्यक्त करने लगे थे । उनके पिताजी ने सगाई को बात की तो उन्होंने स्पष्ट कहा - 'पिताजी ! सगाई में मेरी रुचि नहीं है । मैं तो मोक्षमार्ग का पथिक बनना चाहता हूँ ।" मोक्ष पाने की तीव्र इच्छा (संवेग) से उन्होंने संयम ग्रहण किया और आचार्य धर्मदासजी म० के नाम से तेजस्वी श्रमण हुए । ये सब मोक्ष की इच्छारूप संवेग के बाह्य निमित्तों के ज्वलन्त उदाहरण हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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