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यथार्थ जीवन दृष्टि का मूल्यांकन | १०५ समझना चाहिए कि उसकी दृष्टि, भावना या विचारधारा गलत है। जिन्दगी को नीरस और निरर्थक बना देने वाली यह भयंकर भूल है। जिन्दगी को सही दृष्टि से न जीने की यह भूल है। इस भूल का शिकार मानव जीवन की गतिविधि, हानि-लाभ, विकास-अविकास का सही निर्णय नहीं कर पाता । वह यह विचार नहीं कर पाता कि कौन-से तत्त्व जीव को बन्धन में डालते हैं, कौन से तत्त्वों से बन्धन पड़ता है कौन-से तत्त्वों से उस बन्धन को रोका और तोड़ा जा सकता है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है ? फलतः उलझन भरी पगडंडियों में भटकता हुआ दृष्टिभ्रान्त मानव दुःख को या सुखाभास को सुख समझ बैठता है, जो वस्तु बन्धन में डालने और कष्ट पहुँचाने वाली है उसी को गले से लगाता रहता है, फिर ऐसे मोहजाल में फंस जाता है जिसमें कुढ़न और जलन के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। यदि इस भूल को सुधार कर मानव यथार्थ दृष्टि
और भावना से सोचे तो वह हर परिस्थिति में प्रफुल्लित रह सकता है और प्रतिपल प्रतिक्षण सावधान रहकर आध्यात्मिक विकास कर सकता है। बाह्य प्रतिकूलताएँ उसके मार्ग में बहुत अधिक बाधा नहीं उत्पन्न कर सकतीं। अभाव और अवरोध यत्किचित झकझोरते तो हैं, पर उनमें इतनी सामर्थ्य कि वे परिष्कृत दृष्टि वाले मनुष्य के जीवन लक्ष्य की पूर्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर सकें। परिष्कृत दृष्टि वाला मनुष्य हानि-लाभ, सुख-दुःख लाभअलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि की इन परिस्थितियों में प्रसन्न रह सकता है और अपने लक्ष्य से विचलित हुए बिना एकनिष्ठा बनाए रख सकता है । उदाहरणार्थ परिष्कृत दृष्टि सम्पन्न मानव कदाचित् दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगा तब भी वह अपना अहोभाग्य समझेगा कि उसकी जिन्दगी बच गई केवल थोड़ी-सी चोट आई। इसके विपरीत निराशावादी विकृत दृष्टि सम्पन्न थोड़ी सी चोट के लिए अपने भाग्य को, निमित्तों को, भगवान को कोसता रहेगा।
यह दृष्टिकोण का ही अन्तर है कि कामुकता से प्रेरित भोगी युवक एक युवती को वासनात्मक दृष्टि से देखता है, एक योगी महात्मा उसी युवती को पूर्व पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त हुई आत्मा की सुरम्य आभा के रूप में देखता है अथवा उसे वात्सल्यपूर्ण मातृत्व सम्पन्न महिला के रूप में देखता है। अपने-अपने दृष्टिकोण के फलस्वरूप ये दोनों तदनुरूप फल प्राप्त करते हैं। एक अशुभ कर्मबन्धन करता है और दूसरा पूण्यबन्धन करता है या आत्मभावों में रमण की दृष्टि से निर्जरा (कर्म क्षय) कर लेता है।
सम्यग्दृष्टि के लिए प्रतिकूल भी अनुकूल संसार के किसी भी भौतिक पदार्थ या व्यक्ति में सुख नहीं है या वे सुख
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