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अनुश्र त श्र तियाँ स्वमांसं दुर्लभं लोके लक्ष नापि न लभ्यते ।
अल्पमूल्येन लभ्येत, पलं पर-शरीरजम् ॥ "महाराज ! संसार में अपना मांस दुर्लभ है, कोई लाख रुपए लेकर भी अपना एक तोला मांस देना नहीं चाहता। किंतु दूसरे का मांस वे कुछ पैसों में ही खरोद लेते हैं, इसलिए उन्हें वह सस्ता लगता है। यदि दूसरे के मांस की तुलना अपने माँस से करे तो...?"
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