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प्रीति और भीति
कुछ भक्त भगवान को अपने प्रिय सखा के रूप में देखते हैं, वे उन्मुक्त मन से तथा प्रशांत चेतना के साथ सख्य भाव से प्रभु की उपासना करते हैं।
कुछ भक्त भगवान को स्वामी के रूप में देखते हैं, वे दीनमन तथा वृत्तियों को संकुचित एवं कृत्रिम संयम का आवरण डाले दास्य भाव के साथ भक्ति करते हैं।
संख्य भाव में हृदय की उन्मुक्तता रहती है, मन-आत्म गौरव की अनुभूति से प्रफुल्ल रहता है । अभय और स्नेह से प्रीणित होकर भक्त भगवान के सिंहासन पर बैठने का अधिकार अनुभव करता है।
दास्य भाव में आत्म-गौरव की अनुभूतियां मर जाती हैं, भगवान को स्वामी के रूप में देखकर भक्त सदा उसके सामने दीन-हीन भाव लिए प्रार्थना किया करता है। वह भगवान के सामने आने से भी कतराता है, केवल
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अधिकारभाव में
के रूप म
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