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________________ २६ अनुश्रुत श्रतियाँ वट का विस्तार दूर-दूर तक हो गया, सैकड़ों शाखाएं फैल गई, असंख्य असंख्य पत्तियां हवा में झूमझूम कर लहराने लगी । चितक की दृष्टि एक दिन दोनों वृक्षों पर चली गई । तुलसी का यह पौधा इतनी सेवा और शुश्रूषा पाकर भी न किसी को आश्रय देने योग्य हुआ, न धूप व सर्दी से किसी को बचाने में समर्थ । वह नन्हा सा आकार स्वयं की रक्षा में भी असमर्थता जता रहा था । वट विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था, हजारों पक्षियों का वह आश्रय था । सैकड़ों मनुष्य व पशु धूप वर्षा सर्दी से प्रताडित होकर उसकी छाया में शरण ग्रहण करते थे । आंधी और तूफान की गति भा उससे टकरा कर अवरुद्ध हो जाती । चिंतक स्थिति की गहराई में उतरा । सुख सुविधा का वातावरण और सीमित क्ष ेत्र, विकास की गति को कुंठित कर देता है । दूसरों के पहरे में बढ़ने वाला जीवन सदा पहरे की अपेक्षा रखता है। दूसरों की सुरक्षा में पलने वाला प्राण सदा सदा स्वयं में अरक्षित रहता है । और.... दुःखों से संघर्ष करके बढ़नेवाला असीम विस्तार पाकर विकास की चरम कोटि पर पहुँच जाता है | अपने बल पर अपना विकास करनेवाला दूसरों के विकास में सहायक होता है, अपनी रक्षा स्वयं करने वाला दूसरों की रक्षा करने में भी समर्थ होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003185
Book TitleKhilti Kaliya Muskurate Ful
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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