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गुस्सा क्यों करू
२४६ ___ जो कानों में तीर से लगने वाले वचनों को सहन करना जानता है, वह सचमुच ही क्षमाशील भिक्षु है।
स्वामी विवेकानन्द एक बार रेल यात्रा कर रहे थे। उन्हीं के डिब्बे में दो अंग्रेज यात्री भी बैठे थे । स्वामी जी अपनी मस्ती में थे। अंग्रेजों को उनका उपेक्षापूर्ण व्यवहार देखकर आक्रोश आया। एक तो हिन्दुस्तानी, और दूसरे गेरुआ वस्त्रधारी स्वामी जी को देखकर वे उनके बारे में परस्पर मजाक व अपमानजनक बातें करने लगे। बुरी-से बुरी गालियां देने में भी वे नहीं चूके।
एक स्टेशन आया तो स्वामीजी ने स्टेशन मास्टर को बुलाकर अंग्रेजी में कहा--"कृपया थोड़ा पानी मंगा दीजिए।" स्वामी जी की स्पष्ट व सुसंस्कृत अंग्रेजी सुनकर अंग्रेज मन-ही-मन शर्माए । वे जरा अफसोस के स्वर में बोले-"आप अंग्रेजी जानते हैं, तो फिर हम आप के सम्बन्ध में जो बातें कर रहे थे उन्हें सुनकर आपको गुस्सा नहीं आया ? आप कुछ बोले क्यों नहीं ?"
स्वामी जी ने हँसते हुए कहा- "आप जैसे सज्जनों का संपर्क अनेक बार होता रहता है, गुस्सा करके अपनी शक्ति का अपव्यय क्यों करू? कांटों पर चलने से वे कभी चुभना छोड़ते नहीं, उनसे तो बचकर रहना ही समझदारी है।"
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