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सच्चे श्रोता
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वचन सुनना श्रेष्ठ है, और हजार कुतुहल प्रिय भीड़कारी श्रोताओं को अपेक्षा एक जिज्ञासु श्रोता श्रेष्ठ है । जिज्ञासु श्रोता मिलने पर श्रोता को भी आनन्द आता है और वक्ता को भी ।
जान रस्किन, जिनकी पुस्तक 'अंटू दि लास्ट के अध्ययन से गांधीजी ने 'सर्वोदय' नाम का संस्करण किया, एकबार किसी युनिवर्सिटी में भाषण देने गये । उनके नाम पर 'सभा भवन' खचाखच भर गया। भीड़ को उमड़ते देख 'सभा भवन' में घोषणा की गई, " रस्किन महोदय का भाषण कल के लिए स्थगित रखा जाता है।"
दूसरे दिन फिर भीड़ जमा हो गई, मगर पहले दिन से कम ! और पुनः वही घोषणा हुई- “भाषण कल के लिए स्थगित किया जाता है ।" तीसरे दिन भी ऐसा ही हुआ । आखिर चौथे दिन सभा भवन में केवल दस-बारह विद्यार्थी ही उपस्थित रहे । रस्किन मंच पर आये और बोले—“मित्रो ! काफी भीड़ छट चुकी है, आशा है अब हम अपने मतलब की बात ठीक से सुन सकेंगे ।"
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