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सम्मान
नीतिशास्त्र के कुशल शब्द-शिल्पी आचार्यसोमदेव सूरि ने कहा है"देवाकारोपेतः पाषाणोऽपिनावमन्येत किं पुनर्मनुष्यः।"'
देवता के आकार में प्रतिष्ठित प्रस्तर का भी अपमान नहीं करना चाहिए, तो फिर मनुष्य तो सजीव देवता है, उसका अपमान क्योंकर करें?"
वस्तुतः हर एक प्राणी में चैतन्य देवता विराजमान है, छोटे-बड़े की कल्पना से उसका अपमान करना-उस चैतन्य देव का अपमान है। रूप, जाति, धन, विद्या और पद तो मनुष्य का बाह्य रूप है, इनके गर्व से दीप्त हो अपने से छोटे का अपमान करना, स्वयं अपमान करने वाले की मूर्खता का उद्घोष करता है। महामानव महावीर के शब्दों में-"अन्न जणं खिसई बाल पन्न
१. नीतिवाक्यामृत ७२६
२. सूत्रकृतांग २१३३१४ २३२
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