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बड़ों का क्रोध
२११ __ वास्तव में जो विवेकवान, नीतिज्ञ तथा बड़े कहे जाते हैं, वे कभी अपने क्रोध की गांठ नहीं लगाते । एक क्षण में उनका मुख क्रोध से लाल होकर तमतमाता दिखाई पड़ता, है तो दूसरे ही क्षण कमल-सा खिलता हुआ प्रसन्न। यही तो उनके बड़ा बनने का गुण है।
नेहरू जी एक का संस्मरण है। एकबार वे लखनऊ की एक सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए मच पर खड़े हुए। श्रोताओं में कुछ व्यक्तियों ने गड़बड़ की, सभा की व्यवस्था बिगड़ गई। नेहरूजी ने शांत होने के लिए बार-बार कहा, पर भीड़ पर कोई असर नहीं हुआ। नेहरूजी बहुत शीघ्र क्रुद्ध हो जाते थे। वे अशांत भीड़ पर झपटे । अंगरक्षकों ने उन्हें पकड़ा। उनका चेहरा तमतमा गया, वे घूसों से अंगरक्षकों पर भी प्रहार करने लगे- छूटने की चेष्टा में।
कुछ ही देर में भीड़ पर पुलिस ने काबू पा लिया, सभा में शांति छा गयी। नेहरूजी का गुस्सा भी उतर गया। वे हंसते हुए मंच पर चढ़े। पास में बैठे टंडनजी और पंतजी से बोले-'देखी, आपने मेरी कुश्ती ?" और चारों ओर हंसी के फुवारे छूट गये।
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