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________________ २६० पुण्यपुरुष दाहिना हाथ उन्होंने कुछ ऊँचा किया और फिर एक दिशा की ओर निनिमेष दृष्टि से देखते हुए वे गज गति से चल पड़े। आज महाराज श्रीपाल ने कुछ खोया था, कुछ पाया भी था। मौन, विचारमग्न उन्होंने हाथी पर बैठकर चम्पानगरी में प्रवेश किया। नागरिक प्रसन्न थे। वे महाराज श्रीपाल पर पुष्प-अक्षत तथा मौक्तिकों की वर्षा कर रहे थे। किन्तु श्रीपाल महाराज मौन ही थे। उन्हें ऐसा अनुभव होता था जैसे उनकी आत्मा किसी अन्य लोक में विचरण करने चली गई हो और केवल उनका शरीर ही उस समय उनके साथ हो। चम्पानगरी का शासन भार सम्हालने के पश्चात् महाराज ने सबसे प्रथम मुनि अजितसेन के सांसारिक पुत्र राजसेन को बुलाकर कहा "भाई ! इस चम्पानगरी को छोड़कर शेष सभी राज्य जो मैंने विजित किए हैं, वे अब तुम्हारे हैं। मैं तुम्हें उनका शासक नियुक्त करता हूँ। जाओ, अपनी प्रजा को अपना ही पुत्र समझकर उसका पालन करना।" इसके बाद श्रीपाल महाराज ने धवल सेठ के पुत्र की खोज कराई। जब वह आ पहुँचा तब उसे धवल सेठ की सारी सम्पत्ति सौंपते हुए उससे कहा "बेटा ! यह सारी सम्पत्ति अब तुम्हारी है। इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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