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पवित्र चरित्र को लेकर तीस से भी अधिक रचनाएँ संप्राप्त होती हैं । इस कथा की यह विशेषता रही है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के विज्ञों ने इस पर जम कर लिखा है । परम्परा-भेद के कारण श्वेताम्बर और दिगम्बर लेखकों में कुछ परिवर्तन परिलक्षित होता है, पर मूल कथानक में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
आधुनिक अनुसंधान से यह स्पष्ट यह है कि यह कथा आगम साहित्य में नहीं आई। सर्वप्रथम वज्रसेन गणधर के प्रमुख शिष्य हेमतिलकसूरि थे और उनके शिष्य रत्नशेखरसूरि थे, उन्होंने प्राकृत में "सिरिवालकहा" आख्यान की रचना की। उनके शिष्य हेमचन्द्र साधु ने वि० सं० १४२८ में इस ग्रंथ को लिपिबद्ध किया। रत्नशेखरसूरि सुलतान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में १३४२ गाथाएँ हैं। कुछ गाथाएँ अपभ्रश की भी हैं। ग्रन्थ में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तप इन नौ पदों की उपासना पर बल दिया है। इन नौ पदों के अपूर्व माहात्म्य को बताया है। पूर्व जन्म के संचित कर्म किसप्रकार दारुण वेदनाएँ प्रदान करते हैं, उन दारुण वेदनाओं को नौ पद की साधना से त्राण मिल सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर खतरगच्छ के क्षमाकल्याण जी ने सं० १८६६ में टीका भी लिखी है। ___रत्नशेखरसूरी के शिष्य हेमचन्द्र ने बहुत ही संक्षेप में संस्कृत गद्य में श्रीपाल कथा लिखी है।
सत्यराजगणो जो पूर्णिमागच्छ के गुणसमुद्रसूरी के शिष्य थे, जिन्होंने वि० सं० १५१४ या १५५४ में गीर्वाण गिरा में
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