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१५८ | सोना और सुगन्ध
न पहुँचा । खाना इधर-उधर बिखरने लगा । दानवों ने वहुत सोचा- विचारा, पर कोई भी युक्ति उनकी समझ में नहीं आई । बहुत देर हो गई, सब खाना इधर-उधर बिखर
गया ।
" देखेंगे, अब देव लोग कैसे खायेंगे ?" यह कहते हुए झुंझलाहट के साथ सब असुर उठ गये । अब देवों की बारी आई । उनके भी हाथ उसी तरह बँधे थे । जब देवों ने खाने के लिए हाथ मोड़ा तो हाथ नहीं मुड़ा । डण्डे के साथ बँधा होने के कारण जैसे राक्षसों का हाथ नहीं मुड़ा था, वैसे ही इनका हाथ भी सीधा तना रहा । देवों ने विचार किया - 'यह सीधा हाथ अपने मुँह तक तो नहीं पहुंचेगा पर दूसरे के मुख में बड़ी आसानी से चला जायेगा । यदि खुद खाने की लाचारी है तो हमारा साथी तो खा लेगा ।' यह सोच देवों ने बँधी हुई बाँह से अपने साथी को खिलाना शुरू कर दिया। इस प्रकार सभी देवों ने तृप्त होकर भोजन कर लिया ।
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असुर अपने बारे में ही सोचते रहे, इसलिए भूखे ही उठे । सुरों - देवों ने दूसरे का भला सोचा तो तृप्त होकर खाया । 'भला' उल्टा होकर भी 'लाभ' होता है। मन के भाव को बदलना असुर से सुर होना है । मन जब सुमन न जाता है तो सुमन के समान सदा खिला रहता है और
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