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११४ | सोना और सुगन्ध जाती। वहत बार पूछने पर दबी जबान से इतना ही कहते-'हाँ, परिग्रह भी बुरी चीज है।' - गुरु के बार-बार के इस संकोच को एक विज्ञ श्रावक ताड़ गया। उसने सोचा, 'हर विषय में इतने गहरे पैठने वाले गुरु अक्सर अपरिग्रह के प्रसंग को टाल जाते हैं। कहीं-न-कहीं दाल में काला अवश्य है। श्रावक-शिष्य ने इस मर्म का भेद जानने का निश्चय कर लिया।
एक दिन सभी साधु और गुरु शौचादि के लिए बाहर गये हुए थे। उपाश्रय सूना था। शिष्य ने गुरु के वस्त्र टटोले और वस्त्रों में छिपा रत्न ले लिया।
उसी दिन गुरुदेव ने अपनी धर्म परिषद् में अपरिग्रह पर ऐसा व्याख्यान दिया कि श्रोता चमत्कृत हो गये । उक्त श्रावक भी 'तहत्त वाणी' की झड़ी लगा रहा था। गुरु ने समझ लिया, मेरे रत्न का अपहर्ता यही है।
व्याख्यान के बाद शिष्य ने कहा
"गुरुदेव ! आज तो आपकी अपरिग्रह की व्याख्या असाधारण थी।" . "हाँ," गुरु मुस्कराये-"तू भी तो यही चाहता था।"
शिष्य गद्गद् कण्ठ से बोला-"गुरुदेव ! आप महान हैं। मेरा अपराध क्षमा करना।"
गुरु ने कहा"वत्स ! मैं तो तेरा उपकार ही मानता हूँ।"
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