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________________ महाबल ने पुनः वातायन की ओर देखा। झरोखे के द्वार बन्द हो चुके थे। महाबल ने सोचा, अब मलया यहां नहीं आएगी। उसने ताड़पत्र की ओर देखा । उस पर दो श्लोक लिखे हुए थे। दोनों श्लोक पढ़कर महाबल बहुत प्रसन्न हुआ। इन श्लोकों के द्वारा मलया ने पूछा था-'युवक ! तुम कौन हो? तुम्हारा निवास कहां है और तुम्हारा नाम क्या है ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर दो। तुमने मेरे मन का अपहरण कर डाला है। मैं महाराज वीरधवल की कन्या मलयासुन्दरी हूं। तुम्हारे हृदय के साथ मेरा हृदय संबद्ध हो गया है।' __ महाबल ने सोचा, मलयासुन्दरी केवल रूप और लावण्य की ही अधिष्ठात्री नहीं है, वह पंडित भी है। उसने अपना परिचय दे डाला और साथ ही साथ हृदयतंत्री के झंकृत तारों का संगीत भी सुना डाला। पर मैं इस पत्र का उत्तर कैसे दूं? ___कुमार ने पुन: वातावरण की ओर देखा। उसके मन में आशा की एक लहर दौड़ गई। उसने सोचा-मलयासुन्दरी के कक्ष में जाया जा सकता है। निकट के वृक्ष पर चढ़कर यदि प्रयत्न करूं तो वातायन में पहुंचा जा सकता महाबल योजना बनाने में व्यस्त था। उसे न भूख सता रही थी और न प्यास । उसे किसी भी परिस्थिति का भान ही नहीं था। __इतने में ही उसके कानों में परिचित शब्द सुनाई दिए। उसने ध्वनि के मार्ग की ओर देखा। एक मंत्री उसे ढूंढते-ढूंढ़ते वहां आ पहुंचा। मंत्री ने कहा'श्रीमन् ! चलें, भोजन का समय हो गया है।' महाबल बोला---'आज भूख नहीं है, मंत्रीवर ! देखा, यह उपवन कितना सुन्दर है ! मैं तो यहां घूमते-घूमते तृप्त नहीं हो पाया हूं। फिर भी निवास-स्थान पर तो चलना ही होगा।' ___अतिथिगृह में जाने के पश्चात् महाबल भोजन करने बैठा । पर उसका मन उद्वेलित था। मंत्री ने आकृति से मन की आकुलता को पहचानकर पूछा-- 'श्रीमन् ! क्या आज आप अस्वस्थ हैं ?' ___मंत्रीवर्य ! कोई अस्वस्थता नहीं है। आज के उपवन ने मेरा मन मोह लिया है। उस उपवन में जो वृक्ष हैं, वैसे वृक्ष हमारे उपवन में कहां हैं ?' युवराज ने मन की आग को छिपाते हुए कहा । मंत्री आश्वस्त हुए। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत गया। युवराज शयनखंड में चला गया। उसने मलया से मिलने की योजना बना ली थी कि रात्रि के दूसरे प्रहर के अंत में उपवन में जाकर, एक वृक्ष पर चढ़कर, वातायन में प्रवेश करूंगा और वहां से ५० महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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