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पारितोषिक दिया। __आठ दिनों के निरन्तर संपर्क के कारण चित्रकार के हृदय में महाबलकुमार की छवि अंकित हो चुकी थी। उसने सोचा-कैसा सुन्दर, बलिष्ठ, विनीत और निरभिमानी। ऐसा युवक मैंने कहीं नहीं देखा । चन्द्रावती की राजकन्या मलयासुन्दरी के लिए यह महाबल बहुत योग्य वर है। यदि महाबल और मलयासुन्दरी जीवन-साथी होते हैं तो दोनों बहुत सुखमय दाम्पत्य जीवन जी सकते हैं। यह विचार निश्चित होने के पश्चात्. एक दिन आर्य सुशर्मा महाबलकुमार का चित्रांकन करते-करते विचार करने लगा कि यदि युवराज यहां आते हैं तो मैं उन्हें मलयासुन्दरी का चित्र दिखाऊंगा। उस चित्र को देखकर युवराज के मन में क्या-क्या विचार उभरते हैं, उन्हें जानने का प्रयास करूंगा। - सुशर्मा के मन में यह विचार आया और इतने में ही उसने 'युवराज की जय हो' का घोष सुना । युवराज अतिथिगृह में आए थे।
यह जानकर सुशर्मा द्वार की ओर गया। इतने में ही युवराज कक्ष में आ गए। चित्रकार ने अपना साज-सामान समेटा और युवराज के लिए आसन की व्यवस्था कर कहा---'आयुष्मन् ! सुस्वागतम्, सुस्वागतम् ! आप दीर्घजीवी हैं । अभी-अभी मैंने आपकी स्मृति की थी।'
युवराज ने कहा--'आज मैं राज्यकार्य के लिए पार्श्ववर्ती प्रदेश में चला गया था । अति व्यस्तता के कारण आपसे मिलने नहीं आ सका। मन-ही-मन आपकी स्मृति करता ही रहा।'
सुशर्मा ने युवराज के सामने एक छोटा आसन ग्रहण किया। उसने कहा'यूवराज ! आज जब मैं आपका चित्रांकन कर रहा था, तब मेरे मन में एक पात्र की स्मृति उभर आयी थी।'
'पात्र? 'हा. "जीवन-संगिनी !'
'ओह !' कहते हुए युवराज जोर से हंस पड़ा। उसने हंसते-हंसते कहा-- 'आर्य सुशर्मा !: 'अभी तक मेरे मन में कभी ऐसी कल्पना ही नहीं आयी।'
'सात्विक पुरुषों को ऐसी कल्पनाएं नहीं आतीं, किन्तु आपके जीवन को उज्ज्वल बनाने वाली और कुल में अवतंस-रूप शोभित होने वाली एक कन्या की स्मृति मेरे मानस-पटल पर नाच रही है।'
युवराज मौन रहा।
आर्य सुशर्मा तत्काल उठा। अपनी पेटी खोली और उसमें से राजकुमारी मलयासुन्दरी का चित्र ले आया। युवराज को दिखाते हुए सुशर्मा बोला'युवराजश्री ! यह महाराजा वीरधवल की सुन्दरतम कन्या मलयासुन्दरी है। मैंने पूरे राज-परिवार के सदस्यों का चित्रांकन किया था। जब मैं मलयासुन्दरी
महाबल मलयासुन्दरी ३७
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