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________________ पास जाकर खड़ी हो गई। उसके नयनों में कलाकार की कलाकृति देखने की आतुरता क्रीड़ा कर रही थी। ___ सुशर्मा चित्र को लेकर चन्द्र सेना के पास गया। चित्र अभी कपड़े में लिपटा हुआ ही था। उसने चन्द्रसेना से कहा---'देवी ! चित्र देखने से पूर्व मैं आपसे एक प्रार्थना करना चाहता हूं कि मनुष्य शरीर का निरावरण स्वरूप देखकर अप्रसन्न हो जाता है, इसलिए...' ___ 'मैं बिलकुल अप्रसन्न नहीं होऊंगी।' 'तो देखें !' यह कहते हुए सुशर्मा ने चित्र पर से कपड़े का आवरण हटाया और दोनों हाथों से उसके दोनों कोनों को पकड़कर निर्धारित दीवार के पास खड़ा हो गया। . और चित्र को देखते ही चन्द्रसेना चीख उठी। उसने दोनों हाथों से अपनी आंखें मूंद लीं। सुशर्मा ने हंसते हुए कहा- 'देवी ! मैंने आपसे प्रार्थना की थी कि चित्र को देखकर आप उदास नहीं होंगी।' - 'नहीं, कलाकार ! यह दृश्य तो असह्य है।''आप तत्काल चित्र को समेट दें। मैं ऐसा चित्र देखना नहीं चाहती।' __'देवी ! आप इसको एकाग्र होकर देखें प्रथम क्षण में व्याकुल न बनें मैंने आपका निरावरण चित्रांकन किया है। आप देखें, आपके शरीर पर यौवन की रसमाधुरी अभिव्यक्त हो रही है आपकी शय्या कितनी भव्य है ? आपके इस पलंग से भी चित्रांकित पलंग कितना रमणीय और मनमोहक है। आपकी काया का यह यथार्थ निरावृत स्वरूप है। मैंने आपको पहले ही कहा था कि क्षण-क्षण में परिवर्तित होने वाली यह चमड़ी भी एक आवरण है। इस चमड़ी के आवरण के पीछे छिपी हुई काया का यथार्थ दर्शन करने के लिए मुझे बहुत श्रम करना पड़ा है।' चन्द्रसेना अभी तक अपनी दोनों हथेलियों से आंखों को बंद कर खडी थी। वह बोली-'चित्र को समेट लो।' 'काया का यथार्थ स्वरूप देखकर आप मन में इतनी अकुलाहट का अनुभव क्यों कर रही हैं ? याद रखें, यह चित्र नहीं, किन्तु आपके जीवन का एक बोधपाठ है। कितना ही रूप क्यों न हो, कितना ही सौष्ठव और सौन्दर्य क्यों न हो, वह केवल इस अस्थिपंजर को आवृत करने के लिए है। उनका और कोई प्रयोजन नहीं है।'' 'आकर्षक और मोहक दीखने वाले इस शरीर का यही यथार्थ स्वरूप है। काया में प्राणों के मृदु स्पंदन होते हों अथवा मन के झंझावात उभरते हों, किन्तु काया के मूल स्वरूप को कोई नहीं मिटा सकता।' 'ओह.!' 'एक बार दृष्टि उठाकर चित्र को देखें, देवी ! जो मनुष्य सत्य को नहीं ३०. महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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