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महाबल आनंदित हो रहा था और मलया भी हर्षित हो रही थी।
महाबल ने दूत से कहा- 'दूत ! तुम बहुत वाचाल हो । मैं युद्ध करना नहीं चाहता, किन्तु अन्याय के आगे झुकना भी नहीं चाहता। बलसार दोषी है। मैं उसको उचित दंड देना चाहता हूं। यह मेरे राज्य का प्रश्न है। तुम्हारे राजा मेरे घरेलू मामलों में क्यों हस्तक्षेप करते हैं ? युद्ध केवल सैन्यशक्ति से ही नहीं लड़ा जाता। उसमें न्याय की शक्ति भी आवश्यक होती है। मेरा पक्ष न्याययुक्त है। तुम जाओ और अपने राजा से कहो-युद्ध विनाश का कारण है । मैं युद्ध करना नहीं चाहता। पर यदि वे युद्ध करना ही चाहें तो मैं युद्ध के लिए तैयार
दूत चला गया। महाराजा वीरधवल की सेना राज्य की सीमा पर आ गई।
सूर्योदय से पूर्व ही महाबल हाथी पर सवार हो, पांच सौ सैनिकों को साथ ले युद्धस्थल पर आ पहुंचा।
उसने कवच, शिरस्त्राण पहन रखे थे।
विपक्ष की सेना विशाल थी। शताधिक हाथी थे और उत्तम शस्त्रास्त्रों से सज्जित सैनिक थे।
युद्धभूमि पर आकर वीरधवल ने शत्रु की अल्प सेना को देखकर कहा'अरे ! राजा सिद्धराज युद्ध करने आए हैं या क्रीडा करने ? उनकी सेना एक घटिका भर में नष्ट हो जाएगी।'
सूर्योदय से पूर्व महाबल ने तीन बार महामंत्र का स्मरण किया और स्वर्णप्रभ व्यंतरदेव की स्मृति की। व्यंतरदेव आकर बोला-'क्यों वत्स ! क्या आज्ञा है ?
_ 'महापुरुष ! मैं आपका दास हूं। सामने देखें, मेरे पिता और श्वसुर युद्ध करने आए हैं। दोनों ने मुझे नहीं पहचाना है। मुझे युद्ध नहीं करना है। दिखावा मात्र है। आप यदि सहायक बनें तो मैं अपने पूज्य जनों को अपना परिचय दे सकू । एकाध घटिका में ही सारा संपन्न हो जाएगा।' __व्यंतरदेव ने हंसते हुए कहा--'युवराज ! तुम्हें भी मजाक करने में रस आता है । तुम संग्राम की घोषणा करो किसी की कोई हानि नहीं होगी...'
सूर्योदय हो गया।
दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। रणभेरी बज उठी । शंखनाद होने लगे और दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी।
व्यन्तरदेव ने एक चामत्कारिक स्थिति बना दी।
विपक्ष से जो बाण या शस्त्र आते थे, व्यन्तरदेव उन्हें बीच में ही समाप्त कर देता था। महाबल के शस्त्र सीधे प्रहार करते थे।
महाबल मलयासुन्दरी ३०५
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