SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह षड्यन्त्र है, किन्तु तू निर्भय होकर अश्वशाला में प्रवेश कर, मैं तेरे साथ हूं ।' महाबल ने तत्काल महाराजा से कहा- 'राजन् ! आप विषाद न करें । मैं -अभी आपका पंचकल्याणक अश्व ला देता हूं ।' इतना कहकर महाबल अश्वशाला की ओर दौड़ा । राजा मन ही मन हर्षान्वित हुआ । कुछ समय बीत । सबकी दृष्टि अश्वशाला की ओर थी । सभी ने देखा - महाबल एक तेजस्वी और दिव्य अश्व पर बैठकर आग में से सुरक्षित बाहर आ रहा है । उसका रूप निखर गया था । बदन पर दिव्य अलंकार और वस्त्र सुशोभित हो रहे थे । राजा महाबल का यह रूप देख आश्चर्यचकित रह गया । महाबल सीधा महाराजा के पास आया और बोला- 'राजन् ! यह सब • आपका ही प्रताप है । मैं आपका उपकार मानता हूं। यदि आप मुझे अश्वशाला में न भेजते तो मुझे आरोग्य, रूप, दीर्घायु और दिव्य वस्त्रालंकार प्राप्त नहीं होते । अभी एक घटिका तक ऐसा ही योग है । जो कोई अश्वशाला में जाएगा वह मेरी ही तरह दीर्घ जीवन, रूप, तेज, यौवन और समृद्धि को प्राप्त कर जाएगा ।' राजा के मन में दीर्घ जीवन और यौवन प्राप्त करने का लोभ जागा । - दीर्घ जीवन और यौवन का लोभ किसे नहीं होता ? कुछ ही समय में राजा और अन्यान्य कुछ लोग अश्वशाला में जाने के लिए तैयार हो गए। महाबल ने कहा - 'महानुभावो ! एक साथ दो नहीं जाएं, एकएक कर जाएं ।' राजा कंदर्प देव पहले गया और.. नगरसेठ ने कहा - 'अब मैं जाता हूं ।' महाबल बोला- 'सेठजी ! यह तो उस दुष्ट का अंत करने की चाल थी । - आग में कोई जीवित नहीं बच सकता ।' दुष्ट राजा की मृत्यु हो गई । दुष्ट मंत्री पहले ही मर चुका था । राजा निःसन्तान था । राज्यसिंहासन रिक्त हो गया था । रात्रि में सारे मंत्री तथा नगर के संभ्रान्त व्यक्ति एकत्रित हुए और राजा का चुनाव करने के लिए विचार-विमर्श करने लगे । विचार-विमर्श करते-करते मध्यरात्रि के समय सभी एक बात पर सहमत हुए कि सिद्धेश्वर को राजगद्दी सौंपी जाए । सबको यह विश्वास था कि सिद्धेश्वर राजा बनने योग्य है । इसमें तेज है, विद्या है, शक्ति है । महाबल को राज-सिंहासन पर बिठा दिया । सारा नगर हर्ष से उछलने लगा । ३०४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy