SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के बाहर एक झरोखा भी था। मुक्त होने का यह अच्छा अवसर था। यह सोच वह उठी और खंड के वातायन के पास आयी। उससे वातायन का संकरा द्वार खोला। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हो गया था। उसने देखा कि उपवन में कोई प्रहरी नहीं है। संभव है कि सभी प्रहरी भोजन करने गए हों अथवा बातों में मशगूल हों। नहीं 'मृत्यु की निश्चिति होने पर भी मनुष्य को बचने का प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए । संभव है यहां से मुक्त होने पर पिता के राज्य में जाना हो जाए, प्रियतम से मिलना हो जाए। __झरोखे से नीचे उतरने के लिए उसने रज्जु की अनिवार्यता महसूस की। रज्जु थी नहीं । मलया ने पलंग पर बिछे रेशमी चादर के दो टुकड़े किए। इसी प्रकार ओढ़ने की चादर के दो टुकड़े कर, चारों को जोड़ उसने एक को उस वातायन के संगमरमर के खंभे से बांधा और शेष को नीचे लटका दिया। और क्षण भर का भी विलम्ब न कर वह सरसराती हुई उसके सहारे नीचे उतर गई। उपवन बहुत बड़ा नहीं था । उसके चारों ओर छोटी दीवारें थीं । मलया ने दीवार को फांद डाला। उसी समय उसने भवन में शंखनाद सुना। उसने सोचा–संभव है किसी प्रहरी ने रस्सी बने उन टुकड़ों को देख लिया है और उसने यह शंखनाद किया हो । __ मलया का मन क्षण भर के लिए भयाक्रान्त हो गया और वह बिना कुछ सोचे, बिना गन्तव्य का निर्णय लिये; सामने दीख पड़ने वाले मार्ग पर चल पड़ी। सागरतिलक नगर के मार्गों से मलया बिलकुल अनभिज्ञ थी। उसको यह ज्ञात ही नहीं था कि कौन-सा मार्ग कहां जाता है ? वह तो दुष्ट राजा के पंजे से निकल जाना चाहती थी । निकलने के पश्चात् वह किसी भी उपाय से पितृगह चली जाएगी, ऐसा उसने निश्चय कर रखा था। मलया के मन में जो संदेह था, वह भवन में साकार हो उठा। मलय जब उपवन की छोटी भीत को छलांग मारकर पार कर रही थी, उसी समय दो प्रहरियों ने लटकती हुई उस रस्सी को देखा था और शंखनाद किया था। शंखनाद सुनकर आठ प्रहरी और आ गए और वहां की स्थिति देखकर चौंक पड़े। मलया के खंड का द्वार तोड़कर अंदर देखा । मलया छिटक गई थी। यह समाचार महाराजा के पास पहुंचा । उस समय महाराजा मैरेय का पान कर सोने की तैयारी कर रहे थे । दासी ने हाथ जोड़कर कहा-'कृपावतार ! मुख्य २८२ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy