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________________ 'राधिका ! कर्म का परिणाम बांटा नहीं जा सकता। जो कर्म करता है, उसे ही उसका परिणाम भुगतना पड़ता है । मेरे दुःख का हिस्सा तू नहीं बंटा सकती । राधिका ! जो नारी माता-पिता, पति से बिछुड़ गई हो, जिसका कोई आश्रय न हो और जिसके रूप पर मोहित होकर आश्रयदाता भी मोहविह्वल हो जाते हैं, उस नारी की वेदना को क्या कोई हल्की कर सकता है ?' । 'देवी ! आप मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करने का विचार करें तो आपके सारे दुःख एक क्षण में नष्ट हो सकते हैं।' मलया ने राधिका के हृदय की बात भांप ली। वह बोली-'राधिका ! जो अशक्य है, वह कभी शक्य नहीं हो सकता। तू जो उपाय मुझे बताना चाहती है, वह मैं समझ चुकी हूं। जिस नारी के अन्तर में देहसुख ही सब कुछ है, वह दूसरा क्या मार्ग बता पाएगी?' _ 'देवी ! आपकी दृष्टि अत्यन्त तीव्र है । किन्तु रूप, यौवन और मन की ऊर्मियों को कुचल डालने के बदले भविष्य को उज्ज्वल बनाना श्रेयस्कर है। आपका रूप और तेज देखकर लगता है आप बड़े घराने की स्त्री हैं । आपको चिन्तायुक्त देखकर प्रतीत होता है आप अपने स्वजनों के द्वारा तिरस्कृत हुई हैं। उन्होंने आपको सागर में फेंक दिया है।' ___ मलया मौन रही। राधिका ने आगे कहा--'देवी ! आपके पास वह यौवन और रूप है जो किसी भी नारी के पास नहीं है। यदि आप चाहें तो अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकती हैं।' मलया ने कहा-'राधिका ! मैं तेरे मनोभाव पहले ही जान चुकी थी। जो स्त्री अपने सतीत्व को बाजारू बना देती है, वह कभी शोभारूप नहीं होती। मैं “एक संभ्रान्त परिवार की पुत्रवधू हूं और एक पुत्र की माता भी हूं। मैं रूप और यौवन को अपनी संपत्ति नहीं मानती।"राधिका ! जो नष्ट होती है वह संपत्ति नहीं है। मेरी संपत्ति अपना शील है, पतिव्रतधर्म है । यह कभी नष्ट नहीं होता। यही धन यथार्थ है । शेष सब अधन है।' __मलया और राधिका की बातचीत बहुत देर तक चलती रही। मलया के अपने तर्क थे और राधिका के अपने तर्क। राधिका देहसुख को ही सब कुछ मानकर मलया को देहसुख की ओर आकृष्ट करने का व्यर्थ प्रयत्न कर रही थी और मलया परमसुख मान रही थी शील का संरक्षण । उसके लिए शील ही सब कुछ था। ____ अंत में मलया ने राधिका से कहा—'राधिका, व्यर्थ का प्रयत्न मत कर । तु मुझे प्रलोभन देकर मार्गच्युत करना चाहती है । देख, तेरे महाराजा के पास है ही क्या? ये एक छोटे प्रदेश के राजा हैं किन्तु मुझे यदि तीन लोक की २७२ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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