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________________ करना, इसे संस्कारी और शक्ति संपन्न करना ही मेरा एकमात्र कर्तव्य है । इस कर्तव्य की पूर्ति में मेरा समय सुखपूर्वक बीत जाएगा । नहीं, नहीं - प्रियतम जरूर मिलेंगे और मुझे स्वयं इस दिशा में प्रयत्न करना चाहिए । तापसमुनि की आज्ञा लेकर मुझे अपने पीहर पहुंच जाना चाहिए। वहां जाने पर पूरी व्यवस्था या खोज की जा सकेगी। इस प्रकार चिन्तन में, नयी आशा की कल्पना में और पुत्र को खिलाने में मलया का पूरा दिन बीत गया । सूर्य के अस्त होने से पूर्व ही तापसमुनि आश्रम में आ गए । कुछ समय पूर्व ही बच्चा सो गया था । मलया ने बच्चे की ओर प्रसन्न दृष्टि से देखा और तापसमुनि की दिशा में चली गई । मलया को देखकर तापसमुनि ने पूछा - 'पुत्री ! दोनों सकुशल तो हो ?" 'हां, महात्मन् ! आपकी कृपा से कुशलक्षेम है । अभी सूर्यास्त हो जाएगा, आप कुछ पल ." 'बेटी ! अभी-अभी मैं गोदा के घर भोजन कर आया हूं। आज मार्ग में आते समय मुझे एक दिव्य वनस्पति मिली है' कहते हुए तापसमुनि ने अपनी थैली में से बेर जितनी बड़ी चार-पांच गांठें निकालीं । मलया ने आश्चर्य के साथ कहा - 'दिव्य वनस्पति !' 'हां, यह वनस्पति अत्यन्त प्रभावशाली है । इसको कच्चे आम के रस में घिसकर ललाट पर तिलक करने से स्त्री पुरुष बन जाता है और पुरुष स्त्री बन जाती है । किन्तु इसमें एक कठिनाई है।' 'कौन-सी कठिनाई, महात्मन् ?" 'यह वनस्पति मेरे लिए किसी काम की नहीं है जो स्त्री इसका तिलक करती है, वह पुरुष बन जाती है किन्तु जब तक उसके स्वामी अथवा प्रियतम के थूक से वह तिलक पोंछा नहीं जाता तब तक वह स्त्री अपने मूल रूप में नहीं आ सकती। इसी प्रकार इसका तिलक करने से पुरुष स्त्री हो जाता है किन्तु जब तक वह तिलक उसकी प्रियतमा के थूक से मिटाया नहीं जाता, तब तक वह पुनः पुरुष-रूप में नहीं आ सकता ।' तापसमुनि की बात सुनकर मलया को अपने स्वामी के पास उपलब्ध गुटिका की स्मृति हो आयी । उसे यह भी याद आया कि वह अलंबाद्रि पर्वत की तलहटी के उस वन-प्रदेश में उसी गुटिका के प्रभाव से पुरुष रूप में परिवर्तित हुई थी और फिर सर्परूप प्रियतम के थूक से तिलक पोंछे जाने पर वह मूल स्त्री-रूप में आयी थी । तापसमुनि ने विचारमग्न बनी हुई मलया की ओर देखकर पूछा - 'पुत्री ! विचारमग्न क्यों हो गयी ? यह वास्तव में ही एक दिव्य वनस्पति है "ले, • एक २४० महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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