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४३. पाप का घड़ा फूटा
युवराज का महल तीन दिनों से बंद पड़ा था। आज चौथे दिन का प्रभात हुआ। रानी कनकावती युवराज के बृहद् कक्ष के अन्तर्गत बने हुए लघु कक्ष में बंद थी। भूख-प्यास से वह छटपटा रही थी। उसने सोचा-दो-चार दिन यदि यही अवस्था रही तो मुझे प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा । इस कक्ष में एक भी वातायन नहीं था। ऊपर एक छोटी-सी जाली थी।
यहां छिपने का एकमात्र उद्देश्य था कि वह महारांजा की आंखों से बच जाएगी."किन्तु दूसरों का अहित करने की धुन में उसने अपना ही अहित कर डाला।
अब क्या किया जाए ?
उसने राक्षसी की वेशभूषा तो उसी समय निकाल दी थी। उसने अपने मूल वस्त्र पहन लिये थे और वहां पड़े थोड़े से पानी में हाथ-मुंह धोकर सारा रंग दूर कर डाला था। उसे आशा थी कि जब दास-दासी आएंगे तब वह बाहर निकल जाएगी। उसे यह आशंका नहीं थी कि ये द्वार ऐसे ही बंद पड़े रहेंगे।
युवराज महाबल पल्लीपति पर विजय प्राप्त कर आ रहा था । उसका मन विजय के उल्लास से उछल रहा था। उनके अन्तःकरण में सगर्भा प्रियतमा से मिलने की प्रबल उत्कंठा थी। उसने सोचा-अब कुछ ही दिनों में मलयासुन्दरी बालक का प्रसव करेगी। वह मां बनेगी, मैं पिता बनूंगा और तब पत्नी का मातृत्व रूप देखने को मिलेगा। किन्तु उसे यह कल्पना भी नहीं थी कि उसकी प्रियतमा को वध के लिए वन-प्रदेश में ले जाया जा चुका है । वह तो यही जानता था कि मलयासुन्दरी उसकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी होगी और वह मुझे देखते ही मुसकराकर मेरी विजय को वर्धापित करेगी और...
मलया के वध के लिए भेजे गए वे दोनों सुभट आ गए और महाराजा से बोले-'कृपावतार ! हमने आपकी आज्ञा का पालन कर दिया है।' यह सुनकर महाराजा सुरपाल आश्वस्त हुए।
और उसी दिन से महामारी का प्रकोप घटने लगा । इसका मूल कारण २२६ महाबल मलयासुन्दरी
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