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३६. वर की अग्नि
एक दिन मलया और महाबल--दोनों वातायन में बैठे-बैठे नगर की सुषमा देख रहे थे । अचानक महाबल की दृष्टि राजभवन के प्रांगण की ओर गई.. देखते ही वह चौंका । जिसकी नाक कट गयी थी, वह स्त्री आ रही थी। कुछ क्षणों तक देखने के पश्चात उसने विस्मय से मलया को कहा-'प्रिये ! देख, वह स्त्री जो आ रही है, वही उस दिन वन-प्रदेश में करुण क्रन्दन कर रही थी। उसके प्रियतम के शव ने उसकी नाक काट खाया था। संभव है वह यहीं आ रही है।'
मलया भी उस स्त्री को देखकर चौंकी । वह तत्काल अपनी अपरमाता कनकावती को पहचान गई। उसने सोचा, एक महाराजा की पत्नी की यह दुर्दशा ? राजसुख को छोड़कर एक चोर के पाले पड़ना पड़ा! ओह ! कर्म का विपाक आदमी को कहां से कहां ला पटकता है !
'स्वामी ! आपने इस स्त्री को नहीं पहचाना?' 'मुझे ठीक याद है कि यह वही स्त्री है।' 'यह कथन ठीक है । पर क्या आप इसका नाम जानते हैं ?' 'नहीं।' 'यह मेरी अपरमाता कनकावती है।'
'ओह ! मैंने तो इसे उस रात्रि को देखा था किन्तु तू अन्दर चली जा.." संभव है तुझे देखकर यह कोई भी बात न बताए।'
मलया उठकर भीतर के कक्ष में चली गई।
थोड़े समय पश्चात् एक दासी ने कक्ष में प्रवेश कर युवराजश्री से कहा'महाराजकुमार ! एक बहन आपसे मिलना चाहती है।'
'ठीक है, उसे ससम्मान अन्दर ले आ ।' प्रणाम कर दासी चली गई। कुछ समय बाद वह कनकावती को साथ लेकर खंड में आयी।
युवराज ने खड़े होकर कनकावती की ओर देखते हुए कहा-'पधारो ! मैंने आपको अपना सामान्य परिचय मात्र दिया था किन्तु आपने मुझे आपके निवास
२०६ महाबल मलयासुन्दरी
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