SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाराजा ने कहा-'वत्स ! अब तुझे नहीं जाना है । मैं स्वयं उसकी खबर ले लूंगा।' ___ 'पिताजी! विपत्ति बार-बार नहीं आती और जो आती है उसे रोका भी नहीं जा सकता। मैं अब स्वस्थ हो चुका हूं। आप चलें।' जब वे अग्निकुण्ड के पास आए, तब दिन का दूसरा प्रहर चल रहा था । . अग्निकुण्ड ठंडा हो चुका था। अग्निकुण्ड की ओर दृष्टि जाते ही महाबल चौंका । अग्निकुण्ड में स्वर्ण पुरुष पड़ा था। उसका रूप योगी का-सा था । उस पर सूर्य की किरणें पड़ रही थीं और वह स्वर्ण-पुरुष दूसरे सूर्य की भांति चमक रहा था। महाबल बोला-'महाराजश्री ! योगी स्वयं स्वर्ण-पुरुष बन गया। उसकी सिद्धि सिद्ध हो गई। "पर बेचारा इस सिद्धि का उपयोग...?' सब आश्चर्य से अवाक् होकर देख रहे थे। __ 'पिताश्री ! इस स्वर्ण-पुरुष की महत्ता बतलाते हुए योगी ने मुझे कहा था कि संध्या के समय स्वर्ण-पुरुष के मस्तक को छोड़कर कोई भी अंग काटा जाता है तो वह अंग प्रातः होते-होते ज्यों का त्यों निर्मित हो जाता है । इस प्रकार इस स्वर्ण-पुरुष से अटूट स्वर्ण की प्राप्ति हो सकती है।' महाबल ने कहा। महामन्त्री बोला--'महाराजश्री ! इस स्वर्ण-पुरुष को हम अपने कोशागार में ले चलें और इसका उपयोग प्रजा के कल्याण के लिए करें। इससे प्रजा सुखी होगी और योगी की स्मृति भी बनी रहेगी।' वे स्वर्ण-पुरुष को लेकर राजभवन में आ गए। दिन बीत गया। संध्या आयी। वह भी बीत गई। देखते-देखते रात्रि का प्रथम प्रहर भी बीत गया। आज मिलन-यामिनी थी। युवराज नववधू के साथ शयन-कक्ष में गए । वह अत्यन्त सुन्दर और सज्जित था। मलया का हृदय तरंगित था ही, उस अनुकूल सामग्री से और अधिक तरंगित हो उठा। युवराजश्री शयन-कक्ष में आए। मलया के लिए नियुक्त तीन दासियांअनुरेखा, अपर्णा और यक्षदत्ता वहीं थीं। यक्षदत्ता विनोदप्रिय थी। युवराज को देखते ही बोली-'पधारो, युवराजश्री! दर्द और विवशता के बादल हट गए हैं। पृथ्वीस्थानपुर में अमृत बरसाने वाला चांद गगन में आने का साहस नहीं कर रहा है क्योंकि इस कक्ष में चन्द्रमा को भी लज्जित करने वाली मेरी चन्द्रानना देवी आपका इन्तजार कर रही हैं।' हंसते-हंसते युवराज खंड के बीच बिछे पंलग पर जा बैठे। दासियां चली गईं। २०४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy