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________________ स्वर्णकुंभ आचार्य के पास रख दिया। आचार्य ने पुनः भट्ठी पर पड़े कड़ाहे को देखा। रस का पाचन पूर्ण हो चुका था । उसमें तीन श्वेताम्र गुटिकाएं उबलते हुए रस में उछल-कूद कर रही थीं। आचार्य ने तत्काल ताम्रिकारस उस कड़ाहे में उंडेल दिया। ____ महाबल अचानक चमका । लोहपात्र से भयंकर आवाज आ रही थी। किन्तु आचार्य विश्वस्त थे। अग्नि के ताप को और अधिक तेज किया गया। और तत्काल लोहपात्र से अग्नि की ज्वाला आकाश को छूने लगी। महाबल बोला-'आचार्य देव...!' आचार्य ने महाबल की भावना को समझकर कहा-'युवराज ! यह ज्वाला अग्नि नहीं है। यह ताम्रिकारस के धुएं का गुब्बारा है 'अब तू विशेष सावचेत रहना' 'इस धुएं की गंध चारों ओर फैलेगी और तब व्यन्तर विघ्न डालने के लिए आ पहुंचेंगे। मैंने तुझे जो बात कही थी, वह याद तो है न ?' 'हां'आपने जिस रेखा से बाहर न जाने के लिए कहा है, उससे बाहर मैं पैर नहीं रखूगा।' ____ आचार्य ने कहा--'संभव है कोई दुष्ट व्यन्तर नया रूप धारण कर तुझे आकर्षित करे।' - 'आप निश्चित रहें 'मैं पूर्ण सावधान हूं, कहकर महाबल ने चारों ओर देखा। उस सघन अन्धकार में भी मंत्रित राख से की हुई वह गोलाकार रेखा स्पष्ट दीख रही थी। इस रेखा के बीच ही आचार्य बैठे थे, सारी सामग्री पड़ी थी और महाबल भी वहीं खड़ा था। आचार्य एकटक उस लोहपात्र में उबलते हुए रसायन को देख रहे थे। वे बार-बार आंच को तेज कर रहे थे। . इतने में ही महाबल चौंका 'आश्रम की दूर स्थित बाढ़ को लांघकर एक भयंकर रीछ की आकृति वाला वनमानव, क्रोध से फुफकारता हुआ इस ओर आ रहा था 'महाबल ने आंखें फाड़कर देखा वह भयंकर मानव सात-आठ हाथ ऊंचा था 'अन्धकार में उसके लाल-लाल नेत्र दीपक की भांति चमक रहे थे."उसका पूरा शरीर दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था फिर भी अन्धकार से भी अधिक श्याम उसका वर्ण होना चाहिए, ऐसा अनुमान था। , महाबल ने तत्काल धनुष्य पर बाण चढ़ाया और वनमानव को लक्ष्य कर उसको छोड़ा। बाण सरसराहट करता हुआ तीव्रगति से उस ओर गया। महाबल को यहां रहते अनेक दिन बीत चुके थे, इसलिए अन्धकार में देखने की शक्ति भी बढ़ गई थी। उसने देखा, वनमानव ने आते हुए बाण को हाथ से पकड़ा और भयंकर अट्टहास करते हुए उसे मरोड़कर दूर फेक दिया । वह ४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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