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________________ कि विज्ञान पर स्वामित्व स्थापित करने के लिए नीरव और एकान्त स्थान ही उपयुक्त होता है, जहां कि व्यक्ति के चिन्तन में कोई बाधा नहीं आती । विज्ञान केवल आंकड़ों का शास्त्र नहीं है, वह चिन्तन और प्रयोग की एक भूमिका है। यदि इस भूमिका पर खड़ा रहना है तो व्यक्ति को जन-कलरव से दूर रहना होगा। इसीलिए आचार्य ने इस स्थान का चुनाव किया था। दस वर्ष बीत गए। वे कुछ दिव्य-प्रयोग सिद्ध करना चाहते थे। उसकी सिद्धि के लिए उन्हें एक स्वस्थ, शक्तिशाली, धैर्यवान और पराक्रमी साधक की आवश्यकता थी। दो वर्षों से वे इसी प्रयत्न में लगे थे। एक दिन पृथ्वीस्थानपुर के महाराजा सुरपाल के समक्ष अपनी बात प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा—'महाराज ! मैं अनेक दिव्य-प्रयोग सिद्ध करना चाहता हूं। उनकी सिद्धि के लिए उत्तम साधक अपेक्षित है। आप अपने इकलौते राजकुमार महाबल को डेढ़ महीने के लिए मेरे पास रखें। उसके सहयोग से मेरे प्रयोग सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।' इकलौते पुत्र को इस भयंकर वन में भेजने के लिए राजा का मन नहीं माना, किन्तु आचार्य पद्मसागर जैसे सात्विक साधक की प्रार्थना को ठुकराना भी योग्य नहीं लगा। ___ युवराज महाबल को देखने के बाद ही आचार्य ने यह मांग की थी। राजा को चिन्तित देख; महाबल ने विनयपूर्वक कहा---'पिताजी ! आचार्य के साथ जाने में मुझे कोई भय नहीं है। इनके पास रहने में मुझे परम हर्ष होगा। मैंने इनके विषय में बहुत सुना है। मुझे प्रत्यक्ष अनुभव का लाभ होगा। आप इनकी भावना को स्वीकार करें। ___ राजा चिन्तित हो गया। इकलौते पुत्र को मौत के मुंह में कैसे भेजा जाए.? महारानी पद्मावती वहीं बैठी थी। उसने कहा---'पुत्र ! यह वन अत्यन्त भयंकर है। सुना है, यहां मानवभक्षी राक्षसों और भयंकर स्वभाव वाले व्यन्तर रहते हैं । यहां हिंस्र पशुओं की बहुलता है। दिन में भी यहां जाना भयप्रद लगता है। ऐसे वन में मैं तुम्हें जाने की कैसे अनुमति दे सकती हूं!' महाबल बोला---'मां! आचार्य स्वयं वहां दस वर्षों से रह रहे हैं। वे शक्तिशाली और अनुभवी हैं। उनके समक्ष सारी विपत्तियां चूर-चूर हो जाती आचार्य पद्मसागर ने कहा---'महाराज ! युवराज के जीवन पर कोई विपत्ति नहीं आएगी''और आप यह जानते ही हैं कि व्यक्तित्व का निर्माण संकट की घड़ियों में ही होता है। 'युवराज की आंखों में मुझे उस शक्ति के दर्शन हो रहे हैं, जिसके माध्यम से मैं अपनी सिद्धि में सफल हो सकूँगा और उससे भावी महाराज २ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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