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________________ व्यवहार सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन | ८५ लुद्धीकरण करना चाहिए। इसी प्रकार अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं करना चाहिए । विक्षिप्त. चित्त और दीप्तचित्त की सेवा करनी चाहिए और स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त देकर उसका शुद्धीकरण करना चाहिए । अनवस्थाप्य और पारांचिक के सम्बन्ध में भी चर्चा की गयी है । पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमणों की मर्यादा निश्चित की गयी है। तृतीय उद्देशक में श्रमण स्वतन्त्र और गच्छ का अधिपति बनकर विचरण करना चाहे तो उसे आचारांग आदि का परिज्ञाता होना आवश्यक है और साथ ही स्थविर की अनुमति भी । उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षा पर्यायवाला हो, आगम का मर्मज्ञ हो, प्रायश्चित्त शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता हो, चारित्रवान् और बहुश्रुत हो । आचार्य वही बन सकता है जो कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित हो, क्षमण की आचार-संहिता में कुशल हो, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, बृहत्कल्प, व्यवहार आदि का ज्ञाता हो । अपवाद के रूप में एक दिन की दीक्षा पर्यायवाला भी आचार्य और उपाध्याय बन सकता है, पर उसके लिए प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत, बहुमत तथा गुणसम्पन्न होना अनिवार्य है। चतुर्थ उद्देशक में आचार्य और उपाध्याय के साथ कम से कम एक और वर्षावास में दो साधु का होना आवश्यक है। आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उनके अभाव में कैसे रहना चाहिए और किस तरह आचार्य आदि पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए, इस पर चिन्तन किया है। पाँचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए वैय्यावृत्य पर विचार किया है। छठे उद्देशक में अपने परिजनों के वहाँ पर जाने के लिए स्थविरों की अनुमति आवश्यक है। श्रमण और श्रमणी बहुश्रुत श्रमण-श्रमणी के साथ जाय, पर एकाकी नहीं । आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय में आवें तो उनके पाँव पोंछकर साफ करना चाहिए, उनकी वैय्यावृत्य करनी चाहिए और उनके बाहर जाने पर उनके साथ जाना चाहिए आदि पर विस्तार से चर्चा है । सातवें उद्देशक में श्रमण महिला को और श्रमणी पुरुष को दीक्षा न दें। यदि किसी को उत्कृष्ट वैराग्य भावना हो गयी हो तो इस शर्त पर कि दीक्षा देकर श्रमणी को श्रमणी-समुदाय की सेवा में पहुंचा दिया जाय और श्रमण को श्रमण-समुदाय की सेवा में । जहाँ पर दुष्ट व्यक्तियों की प्रधानता हो वहाँ श्रमणियों को विचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि व्रतभंग आदि का भय रहता है । पर श्रमणों के लिए वह मर्यादा नहीं; आदि अनेक बातें हैं। ___ आठवें उद्देशक में श्रमणों के उपकरणों पर चिन्तन है। यदि किसी स्थान पर कोई श्रमण उपकरण भूल गया हो और अन्य श्रमण, जहां पर उपकरण भूला है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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