________________
८० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
जिनदासगणी महत्तर ने लिखा है- अपृथक्त्वानुयोग के समय प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण, करण, धर्म, गणित और द्रव्य, अनुयोग एवं सप्तनय की दृष्टि से की जाती थी, पर पृथक्स्वानुयोग में चारों अनुयोगों की व्याख्याएँ पृथक् पृथक् रूप में की जाने लगीं । अनुयोगों के आधार पर जो वर्गीकरण किया गया है, वह वर्गीकरण स्थूल दृष्टि से है । उदाहरणार्थ, उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत लिया है, पर उसमें दार्शनिक तथ्य भी पर्याप्त मात्रा में रहे हुए हैं । इसी तरह, अन्य आगमों के सम्बन्ध में भी यह बात रही हुई है क्योंकि कुछ आगमों को छोड़कर शेष आगमों में चारों अनुयोगों का सम्मिश्रण है ।
आगमों का सबसे अन्तिम वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद के रूप में प्राप्त होता है । नन्दी में जो आगमों का विभाग किया गया है, मूल, छेद और उपांग के रूप में नहीं हुआ है और न वहाँ ये शब्द ही हैं । उपांग के अर्थ में ही अंग बाह्य शब्द आया है । उपांग का उल्लेख तत्त्वार्थभाष्य में मिलता है । और उसके पश्चात् आचार्य श्रीचन्द के सुखबोधा समाचारी में", आचार्य जिनप्रभरचित विधिमार्गप्रपा में तथा वायणाविहि में उपांग शब्द का प्रयोग हुआ है। पं० बेचरदासजी दोशी का मानना है कि चूर्णी साहित्य में भी उपांग शब्द आया है।
मूल और छेद विभाग नन्दी आदि में नहीं मिलता । मूल और छेद का विभाग सर्वप्रथम प्रभावक चरित' में प्राप्त होता है और उसके पश्चात् उपाध्याय समयसुन्दरगणी के समाचारी शतक में उपलब्ध होता है । छेद सूत्र का नामोल्लेख आवश्यक नियुक्ति में सर्वप्रथम हुआ है । उसके बाद विशेषावश्यकभाष्य और " निशीथभाष्य
11 है । यह स्पष्ट है कि मूल सूत्र से पहले छेद सूत्र का नामकरण हुआ ।
छेद सूत्रों के नामकरण के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । यह स्पष्ट है कि जिन आगमों को छेद-सूत्र के अन्तर्गत गिना है वे
1 सूत्रकृतांग चूर्णि पत्र-४ ॥
2 तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थ भाष्य १ -२० ।
3 सुखबोधा समाचारी, पृष्ठ ३१-३४ ॥
4 ' इयाणि उवंगा' - विधिमार्गप्रपा |
5 वायणाविहि, पृ० ६४ ॥
6 जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग १, पृ० ३० ॥
7 प्रभावक चरित - २४१ द्वितीय आर्यरक्षित प्रबन्ध |
8 समाचारी शतक ।
9 आवश्यक क्ति ७७७ ।
10 विशेषावश्यकभाष्य २२६५ ।
11 निशीथभाष्य ५६४७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org