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________________ लेश्या : एक विश्लेषण | ७५ उत्तराध्ययननियुक्ति में लेश्या शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा है कि लेश्या के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप होते हैं । नोकर्मश्या और नो-अकर्मलेश्या ये दो निक्षेप और भी होते हैं । नो कर्म लेश्या के जीव नो-कर्म और अजीव नो कर्म ये दो प्रकार हैं । जीव नो-कर्म लेश्या भवसिद्धिक और अभवसिद्धि के भेद से वह भी दो प्रकार की है। इन दोनों के कृष्ण आदि सात-सात प्रकार हैं । अजीव नो-कर्म द्रव्यलेश्या के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारक, आभरण, छादन, आदर्श, मणि तथा काकिनी ये दस भेद हैं और द्रव्य कर्म लेश्या के छह भेद हैं । आचार्य जयसिंह ने संयोगज, नाम की सातवीं लेश्या भी मानी है जो शरीर की छाया रूप है । कितने ही आचार्यों का मन्तव्य है कि औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, कार्मण काय का योग ये सात शरीर हैं तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी, अतः लेश्या के सात भेद मानने चाहिए । 2 के सम्बन्ध में एक गम्भीर प्रश्न है कि किस लेश्या को द्रव्य - लेश्या कहें और किसे भाव- लेश्या कहें ? क्योंकि आगम साहित्य में कहीं-कहीं पर द्रव्य - लेश्या के अनुरूप भाव परिणति बतायी गयी है, तो कहीं पर द्रव्यलेश्या के विपरीत भाव-परिणति बतायी गयी है। जन्म से मृत्यु तक एक ही रूप में जो हमारे साथ रहती है वह द्रव्यलेश्या है । नारकीय जीवों में तथा देवों में जो लेश्या का वर्णन किया गया है वह द्रव्य लेश्या की से किया गया है । यही कारण है कि तेरह सागरिया जो किल्विषिक देव हैं वे जहाँ एकान्त शुक्ललेश्यी हैं वहाँ वे एकान्त मिथ्यादृष्टि भी हैं । प्रज्ञापना में ताराओं का वर्णन करते हुए उन्हें पाँच वर्ण वाले और स्थित लेश्या वाले बताया है । नारक 1 जाण भविसरीरा तव्वइरित्ता य सापुणो दुबिहा । कम्मा नो कम्मे या नो कम्मे हुन्ति दुविहा उ ।। ३५ ।। जीवाणमजीवाणय दुविहा जीवाण होइ नायव्वा । भवमभवसिद्धियाणं दुविहाणवि होइ सत्तविहा ।। ३६ ।। अजीव कम्मनो दव्वलेसा सा दसविहा उ नायव्वा । चंदाण य सूराण य गहगण णक्खत्तताराणं ।। ३७ ।। आभरण छायणा दशगाण मणि कांगिणी ण जा लेसा । अजीव दव्वलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥ ३८ ॥ -- उत्तराध्ययन ३४, पृ०, ६५० 2 जयसिंह सूरि षट् सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मका परिगृह्यते अन्येत्वदारिकौदारिकमिश्रमित्यादि भेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्माणि सप्तविधां जीव द्रश्य लेश्यां मन्यते तथा । - उत्तरा० ३४, टीका० पृ०, ३५० -- प्रज्ञा० पद २ 3 ताराओ पञ्च वण्णओ ठिपले साचारिणो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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