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________________ लेश्या : एक विश्लेषण | ६७ शुद्ध और शुद्धतर हैं । तीन कर्मजातियां सभी जीवों में होती हैं, किन्तु चौथी अशुक्लअकृष्ण जाति योगी में होती है। प्रस्तुत सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है कि उनका कर्म कृष्ण होता है जिनका चित्त दोष-कुलषित या क्रूर है । पीड़ा और अनुग्रह दोनों विधाओं से मिश्रित कर्म शुक्ल-कृष्ण कहलाता है । यह बाह्य साधनों से साध्य होते हैं । तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत व्यक्तियों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं उनमें बाह्य साधनों की किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है, एतदर्थ यह कर्म शुक्ल कहा जाता है । जो पुण्य के फल की भी आकांक्षा नहीं करते उन क्षीण-क्लेश चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है। प्रकृति का विश्लेषण करते हुए उसे श्वेताश्वतर उपनिषद् में लोहित्, शुक्ल और कृष्ण रंग का बताया गया है। सांख्य कौमुदी में कहा गया है जब रजोगुण के द्वारा मन मोह से रंग जाता है तब वह लोहित है, सत्त्वगुण से मन का मैल मिट जाता है, अतः वह शुक्ल है । शिव स्वरोदय में लिखा है--विभिन्न प्रकार के तत्त्वों के विभिन्न वर्ण होते हैं जिन वर्षों से प्राणी प्रभावित होता है। वे मानते हैं कि मूल में प्राणतत्त्व एक है । अणुओं की कमी-बेशी, कम्पन या वेग से उसके पांच विभाग किये गये हैं जैसे देखिएनाम वेग रंग आकार रस या स्वाद (१) पृथ्वी अल्पतर पीला चतुष्कोण मधुर (२) जल अल्प सफेद या बैंगनी अर्द्धचन्द्राकार कसैला (३) तेजस् तीव्र लाल त्रिकोण चरपरा (४) वायु तीव्रतर नीला या आसमानी गोल खट्टा (५) आकाश तीव्रतम काला या नीलाभ अनेक बिन्दु गोल कड़वा (सर्ववर्णक मिश्रित रंग) या आकारशून्य जैनाचार्यों ने लेश्या पर गहरा चिन्तन किया है। उन्होंने वर्ण के साथ आत्मा के भावों का भी समन्वय किया है । द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है । अतः आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से भी लेश्या पर चिन्तन किया जा सकता है । 1 पातञ्जल योगसूत्र ४१७ । । अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बहवी: प्रजा सृजमानां सरूपाः । अजो ह्य को जुषमाणोऽनुशेते, जहात्थेनां भुक्त भोगामजोऽन्यः ।। --- श्वेताश्वतर उपनिषद, ४१५ ३ सांख्य कौमुदी, पृ० २०० । - आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णो हुताशनः । मारुतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णकः ।। -शिवस्वरोदय, भाषा टीका, श्लो० १५६, पृ० ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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