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३४ चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
सकती है ? और कभी वह शून्य कैसे बन सकती है ? अतएव स्पष्ट है कि सृष्टि अपने मौलिक रूप में अनादि-अनन्त है । उसका कोई स्रष्टा नहीं हो सकता।
___ आखिर ईश्वर को जगत का निर्माण करने के प्रपंच में पड़ने की आवश्यकता ही क्या है ? किसी को बनाना और फिर मिटाना बालकों का स्वभाव है, यह ईश्वर का स्वभाव नहीं हो सकता । परम कृपालु ईश्वर यदि सृष्टि रचता है तो यह एकान्त सुख-शान्तिमय होती, अनेक प्रकार के दुःखों से परिपूर्ण नहीं। इसके अतिरिक्त वह चोर, डाकू, हत्यारे, लुटेरे आदि पापिष्ठ जनों का निर्माण क्यों करता ? प्रथम वह ऐसे अधार्मिकों का निर्माण करे और फिर उन्हें दण्डित करने के लिए नरक में भेजे, यह दयामय ईश्वर जैसी सत्ता को शोभा नहीं देता । इस प्रकार जैन दर्शन का मन्तव्य है कि जगत्कर्ता मानने से ईश्वर के स्वरूप में बट्टा लगता है, उसका रूप विकृत हो जाता है।
जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर में अनन्त शक्तियां तो हैं, पर वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह सर्वशक्तिसम्पन्न होता तो अपना जैसा दूसरा ईश्वर बनाने की शक्ति भी उसमें होनी चाहिए थी, मगर यह शक्ति उसमें किसी भी दर्शन को अभीष्ट नहीं है । अतएव ईश्वर है, कोई भी आत्मा ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है और यही जैन साधना का चरम लक्ष्य है। सिक्ख-पन्थ में ईश्वर कल्पना
सिक्ख धर्म वस्तुतः कोई मौलिक धर्म नहीं है, वह हिन्दू धर्म का एक पन्थ है । इसके आद्य संस्थापक नानक थे। नानक का यह मन्तव्य था कि सत्य एक है और उस सत्य को प्राप्त करने के लिए अनेक मार्ग हैं । मानव ईश्वर को पूर्णरूप से नहीं किन्तु अंश रूप से और सही ज्ञान से ही जान सकता है । क्योंकि मनुष्य के ईश्वर ज्ञान की सीमा है । मानव स्वभावतः अपूर्ण हैं । अतः पूर्ण रूप से वह ईश्वर को नहीं जान सकता। सिक्खों का धर्म-ग्रन्थ “आदि ग्रन्थ" या "गुरु ग्रन्थ साहब" है।
उनके धर्मग्रन्थ में ईश्वर के दो प्रकार के गुण माने हैं-मूल गुण और कर्म गुण । उनका स्वरूप इस प्रकार है : ईश्वर के मूल गुण
वह एक है । स्वयंभू है, वह स्रष्टा और शासक है, निराकार है, सबका पिता है, सब कारणों का कारण है, अनन्त, अकाल और निरंकार है, परम पूर्ण और ज्योति स्वरूप है । सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है और सर्वज्ञानी है । ईश्वर के कर्म गण
ईश्वर ही स्रष्टा और संहारकर्ता दोनों है । वह परम न्यायी है।
सिक्ख धर्म में एकेश्वर का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है । सबको उपासना का स्वातन्त्र्य देते हुए गुरुओं ने मूर्ति-पूजा का खण्डन किया है, वे अवतारवाद और बहुदेववाद के विरोधी हैं।
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