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२४ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ है। ये दोनों विचारधाराएँ मूल में एक तत्ववादी हैं, किन्तु अनुभवसिद्ध जड़-चेतन बहुत्व का स्पष्टीकरण प्रधानवादी सांख्यों ने प्रधान को स्वतन्त्र कर्ता का स्थान देकर
और पुरुष बहुत्व स्वीकार करके वास्तविक बहुत्व की उपपत्ति की है और मूल एक ब्रह्मतत्ववादियों ने ब्रह्म को सहकारी उपाधि विशेषण प्रभृति विभिन्न नामों से अन्य तत्व को स्वीकार किया है । इस प्रकार स्पष्ट है, ये दोनों विचारधाराएँ मूल रूप से एकतत्ववादी होने के बावजूद भी अपनी-अपनी दृष्टि से बहुत्व और नानात्व की उपपत्ति करती रही हैं । प्रकृतिवादी सांख्यदर्शन प्रकृति का स्वतन्त्र कर्तृत्व तर्क से संस्थापित करते हैं तो अन्य कितने ही प्रकृतिवादी उसकी संस्थापना उपनिषद् व ब्रह्मसूत्र आदि के आधार से करते हैं । उनका यह स्पष्ट मन्तव्य था कि मुख्य कार्य करने वाली प्रकृति है । पुरुष तो केवल कर्तृत्व भोक्तृत्व शून्य है । ब्रह्मवादियों को उनका यह मन्तव्य स्वीकार नहीं था। वे उसका प्रबल तर्कों से खण्डन करते हुए कहते हैं-प्रधान तत्व अचेतन है, वह विश्व का निर्माण और नियमन किस प्रकार कर सकता है ? उसके लिए तो किसी अचिन्त्य शक्तिसम्पन्न चेतन तत्त्व की अपेक्षा है। इस विचार संघर्ष ने जब उग्र रूप धारण किया तो ब्रह्मसूत्र की रचना हुई। ब्रह्मतत्व में मुख्य रूप से कर्तृत्व स्थापित किया गया । ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य निर्मित हुए उन सभी ने एक स्वर से यह स्वीकार किया कि ब्रह्मतत्व ही विश्व का मुख्य और स्वतन्त्र कारण है । उन्होंने ईश्वर की परिभाषा भी की और साथ ही ब्रह्मतत्व में ही ईश्वर को घटाने का प्रयास किया है।
ब्रह्मसूत्र के जितने भी भाष्य प्राप्त होते हैं, उन भाष्यों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं । एक विभाग में आचार्य शंकर को रख सकते हैं तो द्वितीय विभाग में भास्कर से लेकर चैतन्य तक अन्य आचार्यों को रख सकते हैं। आचार्य शंकर का अभिमत
__ आचार्य शंकर अद्वैतवादी हैं । पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य तत्व वे नहीं मानते । उनके सामने एक ज्वलन्त प्रश्न था कि ब्रह्म को कूटस्थ नित्य माना जाये तो वह परिणामी नहीं हो सकता और न उसमें बन्ध, मोक्ष और जीव भेद की व्यवस्था ही घटित हो सकती है । अतः उन्होंने मायावाद मानकर सभी प्रश्नों के समाधान करने का प्रयास किया है। यहां पर स्मरण रखना चाहिए कि उन्होंने माया को एक स्वतन्त्र तत्व नहीं माना है क्योकि स्वतन्त्र तत्व मानने से उनका अद्वैत सिद्धान्त टिक नहीं सकता था । अतः उन्होंने माया का सदसदनिर्वचनीय प्रभृति के रूप में वर्णन कर उसको न ब्रह्मतत्व से पृथक् माना है और न सर्वथा अपृथक् ही । वे उसे न सत् कहते
1 सांख्यादयः स्वपक्षस्थापनाय वेदान्तवाक्यान्यप्युदाहृत्य स्वपक्षानुगुण्ये नैव योज
यन्तो व्यचक्षते । तेषां यद् व्याख्यानं तद् व्याख्यानाभासं न सम्यग्व्याख्यानमित्येतावत् पूर्वकृतम् ।
- ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य, २१
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