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जेन शासन-प्रभाविका अमर साधिकाएँ | ४५
रित हो जाते हैं। केवली महाराज साधु हैं। उनके आत्मप्रदेश भी साधु के हैं । इस दृष्टि से वे चौदह राजु का विहार करते हैं ।
__आचार्यश्री ने तीसरा प्रश्न किया-सिद्ध भगवान कितने लम्बे हैं और कितने चौड़े हैं ? महासतीजी ने उत्तर में निवेदन किया-सिद्ध भगवान तीन सौ तैंतीस धनुष और बत्तीस अंगुल लम्बे हैं। क्योंकि पाँच सौ धनुष की अवगाहना वाले जो सिद्ध बनते हैं उनके आत्मप्रदेश तीन सौ तैतीस धनुष और बत्तीस अंगुल लम्बे रहते हैं और सिद्ध भगवान चौड़े हैं पैंतालीस लाख योजन । पैंतालीस लाख योजन का मनुष्यक्षेत्र है । जहाँ पर एक सिद्ध हैं वहाँ पर अनन्त सिद्ध हैं । सभी सिद्धों के आत्मप्रदेश परस्पर मिले हुए हैं । बीच में तनिक मात्र भी व्यवधान नहीं है । इस घनत्व की दृष्टि से सिद्ध पैंतालीस लाख योजन चौड़े हैं ।
___चौथा प्रश्न आचार्यश्री ने किया-चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर हैं । बताइये दोनों में से किसकी आत्मा हमारे से अधिक सन्निकट है ? उत्तर मे महासतीजी ने कहा- भगवान ऋषभदेव की आत्मा हमारे स अधिक सन्निकट है बनिस्वत महावीर के । क्योंकि भगवान ऋषभदेव की अवगाहना पाँच सौ धनुष की थी और महावीर की अवगाहना सात हाथ की थी। जिससे अपभदेव के आत्म प्रदेश तीन सौ तैंतीस धनुष और बत्तीस अंगुल हैं और महावीर की आत्मा के प्रदेश चार हाथ और सोलह अंगुल है । अतः ऋषभदेव की आत्मा महावीर की आत्मा से हमारे अधिक सन्निकट है।
पाँचवाँ प्रश्न आचार्यश्री ने किया-दो श्रावक हैं । वे दोनों एक ही स्थान पर बैठे हैं। एक देवसी, प्रतिक्रमण करता है और दूसरा राईसी प्रतिक्रमण करता है । ये दोनों पृथक-पृथक प्रतिक्रमण क्यों करते हैं ? उसकी क्या अपेक्षा है ? स्पष्ट कीजिए । महासतीजी ने उत्तर में कहा-दो श्रावक हैं, एक भरतक्षेत्र का दूसरा महाविदेह क्षेत्र का । वे दोनों श्रावक विराधक हो गये और वे वहां से आयु पूर्ण कर अढाई द्वीप के बाहर नन्दीश्वर द्वीप में जलचर के रूप में उत्पन्न हुए । नन्दीश्वर द्वीप में देव भगवान तीर्थंकरों के अष्टाह्निक महोत्सक मानते हैं। उन महोत्सवों में तीर्थकर भगवान के उत्कीर्तन को सुनकर उन जलचर जीवों को जातिस्मरणज्ञान होता है और वे उस ज्ञान से अपने पूर्वभव को निहारते हैं और उस जातिस्मरणज्ञान के आधार से वे वहाँ पर प्रतिक्रमण करते हैं । क्योंकि नन्दीश्वर द्वीप में तो रात-दिन का कोई क्रम नहीं है । अतः वे जातिस्मरणज्ञान से अपने पूर्व स्थल को देखते हैं, मन में ग्लानि होती है, अतः वे वहाँ प्रतिक्रमण करते हैं। पर जिस समय भरतक्षेत्र में दिन होता है उस समय महाविदेहक्षेत्र में रात्रि होती है, अतः एक देवसी प्रतिक्रमण करता है और दूसरा राईसी प्रतिक्रमण करता है । सन्निकट बैठे रहने पर भी वे दोनों पृथक-पृथक प्रतिक्रमण करते हैं।
आचार्यश्री ने छठा प्रश्न किया-जीव के पांच सौ तिरसठ भेदों में से ऐसा
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