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३२ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ]
महासती श्री सद्दाजी ने अनेक मासखमण तथा कर्मचूर और विविध प्रकार के तप किये । तप आदि के कारण शारीरिक शक्ति विहार के लिए उपयुक्त न रहने पर वि० सं० १९०१ में वे जोधपुर में स्थिरवास ठहरी । महासती फत्तू जी और रत्ना जी को उन्होंने आदेश दिया कि वे घूम-घूम कर अत्यधिक धर्मप्रचार करें । उन्होंने राजस्थान के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर अनेकों बहनों को प्रव्रज्या दी । सं० १९२१ में महासती फत्त जी और रत्नाजी के विचार किया कि इस वर्ष हम सब गुरुणीजी की सेवा में ही वर्षावास करेंगी । सभी महासती साजी की सेवा में पहुँच गयीं । आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन महासती सद्दाजी ने तिविहार संथारा धारण किया । सद्गुरुणीजी को संथारा धारण किया हुआ देखकर उनकी शिष्या महासती लाधाजी ने भी संथारा कर लिया और सद्गुरुणी जी से कुछ दिनों के पूर्व ही स्वर्ग पहुँच गईं । संथारा चल रहा था, महासतीजी ने अपनी शिष्याओं को बुलाकर अंतिम शिक्षा देते हुए कहा - " अपनी परम्परा में ब्राह्मण और वैश्य के अतिरिक्त अन्य वर्णवाली महिलाओं को दीक्षा नहीं देना, तथा मैंने अन्य जो समाचारी बनायी है, उसका पूर्णरूप से पालन करना । तुम वीरांगना हो । संयम के पथ पर निरन्तर बढ़ती रहना । चाहे कितने भी कष्ट आवें उन कष्टों से घबराना नहीं ।" सद्गुरुणीजी की शिक्षा को सुनकर सभी साध्वियाँ गद्गद हो गयीं । उन्हें लगा कि अब सद्गुरुणीजी लम्बे समय की मेहमान नहीं हैं । हमें उनकी आज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करना ही चाहिए । भाद्रपद सुदी एकम के दिन पचपन दिन का संथारा कर वे स्वर्ग पधारीं । इस प्रकार पैंतालीस वर्ष तक महासती सद्दाजी ने संयम की साधना, तप की आराधना की। आज भी महासती सद्दाजी की शिक्षा-परिवार में पचास से भी अधिक साध्वियां हैं।
महासती रत्नाजी की शिष्या - परिवार में शासन प्रभाविका लछमाजी का नाम विस्मृत नहीं किया जा सकता । इनका जन्म उदयपुर राज्य के तिरपाल ग्राम में सं० १९१० में हुआ था । आपके पिता का नाम रिखबचन्दजी माण्डोत और माता का नाम नन्दूबाई था । आपके दो भ्राता थे – किसनाजी और वच्छराज जी । आपका पाणिग्रहण मादडा गाँव के साँकलचन्दजी चौधरी के साथ हुआ। कुछ समय के पश्चात् साँकलचन्दजी के शरीर में भयंकर व्याधि उत्पन्न हुई और उन्होंने सदा के लिए आँख मूंद ली । उस समय महासती रत्नाजी की शिष्या गुलाबकुंवरजी मादडा पधारीं । वे महान तपस्विनी थीं, उन्होंने अपने जीवन में अनेकों मासखमण किये थे । उनके उपदेश को सुनकर लछमाजी के मन में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई । और वि० सं० १९२८ 'भागवती दीक्षा ग्रहण की। वे प्रकृति से भद्र, विनीत और सरल मानसवाली थीं ।
एक बार वे अपनी सद्गुरुणीजी के साथ बड़ी सादडी में विराज रही थीं । सती - वृन्द कमरे में आहार कर रही थीं कि एक बालक आँखों से आँसू बरसाता हुआ
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