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३० | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २]
के पश्चात् रास्ते में एक उपवन था उसमें एक बहुत रमणीय स्थान था जो एकान्त था वहाँ पर बैठकर महासती जी स्वाध्याय करने लगीं । स्वाध्याय चल रही थी, इधर बृहद् नौ तत्व के रचयिता श्रावक दलपतसिंहजी उधर आ निकले । उन्होंने देखा कि उपवन के वृक्षों के पत्ते दनादन गिर रहे हैं । फूल मुरझा रहे हैं । असमय में पतझड़ को आया हुआ देखकर उन्होंने सोचा इसका क्या कारण है ? इधर-उधर देखा तो उन्हें महासती जी एकान्त में बैठी हुई दिखायी दी । श्रावकजी उनकी सेवा में पहुंचे। नमन कर उन्होंने महामती से पूछा-आप क्या कर रही हैं ? महासती ने बताया कि मैं स्वाध्याय कर रही हूँ । इस समय चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति की स्वाध्याय चल रही है । श्रावकजी ने नम्रता से निवेदन किया-सद्गुरुणीजी, देखिए कि वृक्ष के पत्ते असमय में गिर रहे हैं, फूल मुरझा रहे हैं । लगता है स्वाध्याय करते समय कहीं असावधानी से स्खलना हो गई है । कृपाकर आपश्री पुनः स्वाध्याय करें । लाला दलपतसिंह जी भी आगम के मर्मज्ञ विद्वान थे । स्वाध्याय की गयी। जहाँ पर स्खलना हुई थी श्रावकजी ने उन्हें बताया । स्खलना का परिष्कार करने पर वृक्षों के पत्ते गिरने बन्द हो गये और फूल मुस्कराने लगे।
महासतीजी का विहार क्षेत्र दिल्ली, पंजाब, जयपुर, जोधपुर, मेड़ता और उदयपुर रहा है-ऐसा प्रशस्तियों के आधार से ज्ञात होता है । महासती भागाजी की अनेक विदुषी शिष्याएं थीं। उनमें वीराजी प्रमुख थीं । वे भी आगमों के रहस्यों की ज्ञाता और चारित्रनिष्ठा थीं। उनकी जन्मस्थली आदि के सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त नहीं है । महासती वीराजी की मुख्य शिष्या सद्दाजी थीं जिनका परिचय इस प्रकार है।
राजस्थान के साम्भर ग्राम में वि० सं० १८५७ के पौष कृष्ण दशम को महासती सदाजी का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम पाटनदे था और पिता का नाम पीथाजी मोदी था। और दो ज्येष्ठ भ्राता थे। उनका नाम मालचन्द और बालचन्द था। सद्दाजी का रूप अत्यन्त सुन्दर था तथा माता-पिता का अपूर्व प्यार भी उन्हें प्राप्त हुआ था। उस समय जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी थे । सुमेरसिंहजी मेहता महाराजा अभयसिंह के मनोनीत अधिकारी थे। उन्होंने चारण के द्वारा सद्दाजी के अपूर्व रूप की प्रशंसा सुनकर उनके पिता के सामने प्रस्ताव रखा अन्त में सहाजी का पाणिग्रहण उनके साथ सम्पन्न हुआ । विराट वैभव और मनोनुकूल पत्नी को पाकर मेहताजी भोगों में तल्लीन थे । सद्दाजी को बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार मिले थे। इस कारण वे प्रतिदिन सामायिक करती थीं और प्रातःकाल व सन्ध्या के समय प्रतिक्रमण भी करती थीं।
एक बार सद्दाजी एक प्रहर तक संबर की मर्यादा लेकर नमस्कार महामन्त्र का जाप कर रही थीं, उसी समय दासियाँ घबरायी हुईं और आँखों से आँसू बरसाती हुई दौड़ी आयीं और कहा मालकिन, गजब हो गया । मेहताजी की हृदय गति एका
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