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२८ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] करवाया । आर्य कलक को गर्दभिल्ल के घोर अनाचार का पता लगा। राजा को समझाने का प्रयास किया, किन्तु राजा न समझा । अतः आर्य कालक ने शकों की सहायता प्राप्त की एवं अपने भानजे भडौंच के राजा भानुमित्र को लेकर युद्ध किया, साध्वी सरस्वती को मुक्त करवाया और पनः अपनी बहन सरस्वती को दीक्षा प्रदान की। साध्वी सरस्वती अनेक कष्टों का सामना करके भी अपने पथ से च्युत नहीं हुई।
वीरनिर्वाण की पांचवीं शती में आर्य वज्र की माता सुनन्दा ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। उन्होंने किस श्रमणी के पास श्रमणधर्म स्वीकार किया इसके नाम का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है । यह सत्य है कि उस युग में साध्वियों का विराट समदाय होगा, क्योंकि बालक वज्र ने साध्वियों से ही सुनकर एकादश अंगों का अध्ययन किया था।
वीरनिर्वाण की छठी शताब्दी के पूर्वाद्ध में साध्वी रुक्मिणी का वर्णन मिलता है । वह पाटलीपुत्र के कोट्याधीश श्रेष्ठी धन की एकलौती पुत्री थी । आर्य वज्र के अनुपम रूप को निहार कर मुग्ध हो गयी । उसने अपने हृदय की बात पिता से कही। वह एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुँचा । किन्तु रुक्मिणी ने वज्रस्वामी के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की । और रुक्मिणी तथा वज्रप्वामी के अपूर्व त्याग' को देखकर सभी का सिर श्रद्धा से नत हो गया।
वीरनिर्वाण की पांचवीं-छठी शती में एक विदेशी महिला के द्वारा आर्हती दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख प्राप्त होता है। विशेषावश्यकभाष्य तथा निशीथचूणि में वर्णन है कि मुरुण्डराज की विधवा बहिन प्रव्रज्या लेना चाहती थी। मुरुण्डराज ने साध्वियों की परीक्षा लेने हेतु एक आयोजन किया कि कौन साध्वी कैसी है । एक भीमकाय हाथी पर महावत बैठ गया और चौराहे पर वह खड़ा हो गया । जब कोई भी साध्वी उधर से निकलती तब महावत हाथी को साध्वी की ओर बढ़ाते हुए साध्वी को चेतावनी देता कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाय, नहीं तो यह हाथी तुम्हें अपने पाँवों से कुचल डालेगा। अनेक साध्वियाँ, परिवाजिकाएं, भिक्षुणियाँ उधर निकलीं । भयभीत होकर उन्होंने वस्त्र का परित्याग किया । अन्त में एक जैन श्रमणी उधर आयी। हाथी ज्यों ही उसकी ओर बढ़ने लगा त्यों ही उसने क्रमशः अपने धर्मोपकरण उधर फेंक दिये, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी। किन्तु उसने अपना वस्त्र-त्याग नहीं किया । जब जनसमूह ने यह दृश्य देखा तो उनका आक्रोश उभर आया । मरुण्डराज ने भी संकेत कर हाथी को हस्तीशाला में भिजवाया और उसी साध्वी के पास अपनी बहिन को प्रवजित कराया। साहस, सहनशीलता, शान्ति और साधना की प्रतिमूर्ति उस साध्वी का तथा मुरुण्ड राजकुमारी इन दोनों का नाम क्या था, यह ज्ञात नहीं है।
वीरनिर्वाण की छठी शती में आर्यरक्षित की माता साध्वी रुद्रसोमा का नाम
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