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६६ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
निष्ठा रखो, तुम अपने जीवन की बागडोर मेरे को सँभला दो। मैं तुम्हारा उद्धार कर दूंगा। पर, जैन और बौद्ध वाङ्मय में इस प्रकार का आश्वासन महावीर और बुद्ध ने कहीं पर भी नहीं दिया है ।
जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अतिचार बताये हैं । उसमें संशय अतिचार है, तो गीताकार ने भी संशय को जीवन का दोष माना है । फल आकांक्षा को जैन दर्शन में अतिचार माना है । साधक को एकान्त निर्जरा के लिए साधना करनी चाहिए | वैसे ही गीताकार ने भी फल की आकांक्षा से जो भक्ति करता है उसकी भक्ति श्रेष्ठ कोटि में नहीं मानी है । वह भक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से हेय है । वह साधक को साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ाती । जो साधक विवेक को विस्मृत होकर, भोगों के प्रति आसक्त होकर, परमात्म तत्त्व को विस्मृत होकर देवताओं की शरण को ग्रहण करते हैं; उन देवताओं की साधना-आराधना के द्वारा अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, पर मुझे वही प्राप्त होता है जिसकी मेरे पर गहरी निष्ठा होती है । "
इस तरह हम देखते हैं कि श्रद्धा के रूप में सम्यग्दर्शन की व्याख्या गीता में की गई है और उसे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। गीता की श्रद्धा भी अनासक्त जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करती है तो सम्यग्दर्शन में भी वही विचारधारा है । तुलनात्मक दृष्टि से; समन्वय की भावना से चिन्तन करने पर बहुत कुछ समाता प्राप्त होती है ।
1 गीता ४-४० । 2 गीता ७-२१/२३ ।
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