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९४ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
सम्यग्दृष्टि साधक पाप का आचरण नहीं करता। क्योंकि आचरण का सही और गलत होना व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर है। जो सम्यग्दृष्टि होता है उसका आचरण हमेशा नही होता है, सत् होता है और मिथ्याहृष्टि वाले का आचरण असत् होता है। इसीलिए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि कितना भी दान और पुरुषार्थ करे किन्तु यथार्थ दृष्टि के अभाव में उसका वह पुरुषार्थ मुक्ति की ओर नहीं ले जाता। वह तो कर्म बन्धन के कारण होंगे। मिथ्यादृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही होगा। किन्तु सम्यग्दृष्टि में फल की आकांक्षा न होने से उसका सभी पुरुषार्थ विशुद्ध होता है।
वैदिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन वैदिक परम्परा में भी सम्यग्दर्शन का विशिष्ट स्थान रहा है। आचार्य मनु ने आचारांग की तरह ही कहा है--सम्यग्दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति कर्म का बन्धन नहीं करता। जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से रहित है वही व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता आदि में 'सम्यग्दर्शन' शब्द नहीं मिलता। किन्तु सम्यग्दर्शन का जो पर्यायवाची शब्द श्रद्धा है। उसका विस्तार से विश्लेषण है। गीताकार ने कहा-कि वही ज्ञान का अधिकारी है जिसके जीवन में श्रद्धा का आलोक है। जिस व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होगी, जैसा जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण होगा, वैसा ही उसका जीवन बनता है। .
श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन के कुरुक्षेत्र से मैदान में कहा यदि कोई दुराचारी व्यक्ति है उसकी मुझ पर दढ़ निष्ठा है और मुझे स्मरण करता है तो वह चिर शांति को प्राप्त कर सकता है।
___आचार्य शंकर ने सम्यग्दर्शन का महत्व प्रतिपादित करते हुए लिखा हैसम्यग्दर्श ननिष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन अवश्य करता है और निर्वाण लाभ प्राप्त करता है ।
तो स्पष्ट है, जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता वहाँ तक राग का उच्छेद नहीं होता और बिना राग के उच्छेद के मुक्ति नहीं होती । जिस व्यक्ति की जैसे श्रद्धा होगी वैसा
1 आचारांग १३।२।
सूत्रकृतांग १-८-२२।२३ ।
मनुस्मृति ६-७४ । 4 "श्रद्धावान् लभते ज्ञानं"। 5 गीता। 6 गीता १७-३ । 7 गीता भाष्य ६-३०/३१, १८-१२ ।
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