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९० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
के व्यवहार को करण कहा है । भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य आचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है ।
जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जनता हो, अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है । जो गीतार्थ हैं उनके लिए व्यवहार का उपयोग है । प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए । प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकु चना ये चार अर्थ है । प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं - १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. उत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल 8 अनवस्थाप्य और १० पारांचिक । इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनयपिटक' में आये हुए प्रायश्चित्त विधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी । प्रायश्चित्त प्रदान करनेवाला अधिकारी या आचार्य बहुश्रुत व गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने आलोचना का निषेध किया गया है। आलोचना और प्रायश्चित्त दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए जिससे कि वह गोपनीय रह सके ।
बौद्ध परम्परा में साधु समुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है । विनयपिटक में लिखा है - प्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हो । तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है । अतः किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख
वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की आलोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवाता है । द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है । सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं । इसी तरह भिक्षुणियाँ भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं । यह सत्य है कि दोनों ही परम्पराओं की प्रायश्चित्त विधियाँ पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है । दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है ।
प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं । मूल गुण अतिचार प्रतिसेवना प्राणातिपात, भृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पाँच प्रकार की है। उत्तर गुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है । उत्तरगुण, अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रित साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्धा प्रत्याख्यान के रूप में हैं । अपर शब्दों में
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1 विनयपिटक निदान
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