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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
योग्य हो वह समचतुरस्र कहलाता है । तीर्थक र चक्रवर्ती वासुदेव और बलदेव का यही संस्थान होता है।
संहनन- शरीर की अस्थियों का बंधन । समय-काल का सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश ।
समवसरण- तीर्थंकर परिषद् अथवा वह स्थान जहां पर तीर्थंकर का उपदेश होता है।
समाचारी-साधुओं को अवश्य करणीय क्रियाएं व व्यवहार ।
समाधिमरण-श्रुत और चारित्र में स्थित रहते हुए निर्मोह भाव से मृत्यु । अर्थात् राग द्वष से रहित होकर समभाव पूर्वक पण्डित मरण ।
समिति-संयम के अनुकूल प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । वे पाँच हैं
(१) ईर्या-अहिंसा के पालन के निमित्त युग परिमाण भूमि को देखते हुए तथा स्वाध्याय व इन्द्रियों के विषयों का वर्जन करते हुए चलना।
(२) भाषा-भाषा-दोषों का परिहार करते हुए पाप रहित एवं सत्य, हित, मित और असंदिग्ध वचन बोलना।
(३) एषणा-गवेषणा, ग्रहण और ग्नास सम्बन्धी एषणा के दोषों का परिहार करते हुए आहार पानी आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट औपग्रहिक उपधि का अन्वेषण करना।
(४) आदान निक्षेप-वस्त्र, पात्र, प्रभृति उपकरणों को सावधानीपूर्वक लेना व रखना।
(५) उत्सग-मल-मूत्र, खेल, थूक, कफ, आदि का विधि पूर्वक पूर्वदृष्ट एवं प्रमाजित निर्जीव भूमि पर विसर्जन करना।
सम्यक्त्व--यथार्थ तत्त्व श्रद्धा सम्यक्त्वी-यथार्थ तत्त्व श्रद्धा से सम्पन्न
सागरोपम-पल्योपम की दस कोटाकोटी से एक सागरोपम होता है । पल्योपम देखें। उपमाकाल विशेष ।
सावद्य-पापसहित सिद्ध-कर्मों का निर्मूल नाश कर जन्म-मरण से मुक्त हुई आत्मा।
सिद्धि-सर्व कर्मों के क्षय से प्राप्त होने वाली अवस्था, चरम लक्ष्य की प्राप्ति ।
स्थविर - वृद्ध स्थविर तीन प्रकार के होते हैं-१ प्रव्रज्यास्थविर-जिन्हें प्रव्रजित हुए बीस वर्ष हो गये हों, २ वयस्थविर-जिनका वय साठ वर्ष का हो गया हो (३) श्रुत स्थविर-जिन्होंने स्थानाङ्ग समवायांग आदि का विधिवत् ज्ञान प्राप्त किया हो।
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