________________
४०६
भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण लेश्या-योग वर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाला आत्म-परिणाम ।
लोक-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव की अवस्थिति जहां हो वह आकाशखण्ड ।
लोकान्तिक-पाँचवें ब्रह्मदेवलोक में छह प्रतर हैं । मकानों में जैसे मंजिल होती है वैसे ही स्वर्गों में प्रतर होते हैं । तीसरे अरिष्ट प्रतर के पास दक्षिण दिशा में त्रसनाडी के भीतर चार दिशाओं में और चार विदिशाओं में आठ कृष्ण राजियां हैं । लौकान्तिक देवों के वहां नौ विमान हैं। आठ विमान आठ कृष्ण राजियों में हैं । और एक मध्यभाग में है । उनके नाम इस प्रकार हैं :- (१) अर्ची, (२) अचिमाल, (३) वैराचन, (४) प्रभंकर (५) चन्द्राभ, (६) सूर्याभ, (७) शुक्राभ, (८) सुप्रतिष्ठ (8) रिष्टाभ (मध्यवर्ती)। एकभवावतारी होने के कारण ये लोकान्तिक कहलाते हैं । विषय-वासना से ये प्रायः मुक्त रहते हैं । अतः इन्हें देवर्षि भी कहते हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार तीर्थंकरों के दीक्षा के समय ये उद्बोधन देने हेतु आते हैं।
वर्षीदान-तीर्थंकरों द्वारा एक वर्ष तक प्रतिदिन दिया जाने वाला दान ।
वासुदेव---पूर्वभव में किये गये निदान के अनुसार नरक या स्वर्ग से आकर वासुदेव के रूप में अवतरित होते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में ये नौ-नौ होते हैं । उनके गर्भ में आने पर माता सात स्वप्न देखती है । शरीर का वर्ण कृष्ण होता है । भरतक्षेत्र के तीन खण्डों के अधिपति होते हैं । प्रतिवासुदेव को मारकर ही त्रिखण्डाधिपति होते हैं। इनके सात रत्न होते हैं- (१) सुदर्शन चक्र, (२) अमोघ खड्ग, (३) कौमोदकी गदा (४) धनुष्य अमोघबाण, (५) गरुडध्वजरथ, (६) पुष्पमाला, (७) कौस्तुभमणि ।
विभंग ज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के विना केवल आत्मा के द्वारा रूपीद्रव्यों को जानना अवधिज्ञान है। मिथ्यात्वी का यही ज्ञान विभंग कहलाता है।
विराधक-ग्रहण किये हुए व्रतों की आराधना नहीं करने वाला, या विपरीत आचरण करने वाला अथवा अपने दुष्कृत्यों का प्रायश्चित्त करने के पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाला।
वैमानिक-देवों का एक प्रकार
वैयावृत्ति-आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, स्थविर सामिक, कुल, गण, और संघ की आहार आदि से सेवा करना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org