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पारिभाषिक शब्द-कोश : परिशिष्ट ४
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चौबीसी-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में होने वाले चौबीस तीर्थंकर । छ?-(षष्ट) दो दिन का उपवास; बेला।
छद्मस्थ-घातीकर्म के उदय को छद्म कहते हैं । इस अवस्था में स्थित आत्मा छद्मस्थ कहलाती है । जहां तक केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है वहां तक वह छद्मस्थ कहलाती है ।
जातिस्मरण ज्ञान-पूर्वजन्म की स्मति कराने वाला ज्ञान । इस ज्ञान के बल से व्यक्ति एक से लेकर नौ पूर्व-जन्मों को जान सकता है। एक मान्यता के अनुसार नौ सौ भव भी जान सकता है।
जिन-राग-द्वेष रूप शत्रुओं को जीतने वाली आत्मा । (अर्हत् तीर्थंकर आदि इसके अनेक पर्याय हैं ।) ___ जिनकल्पिक गच्छ से पृथक् होकर उत्कृष्ट चारित्र-साधना के लिए प्रयत्नशील साधक । उसका आचार जिन-तीर्थंकरों के आचार के समान कठोर होता है, अतः इसे जिनकल्प कहा जाता है। इसमें साधक जंगल आदि एकान्त शान्त स्थान में अकेला रहता है । रोग आदि होने पर उसके उपशमन के लिए प्रयत्न नहीं करता । शीत, ग्रीष्म आदि प्राकृतिक कष्टों से विचलित नहीं होता । देव, मानव और तिर्यंच आदि के उपसर्गों से भयभीत होकर अपना मार्ग नहीं बदलता । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेता है और अहर्निश ध्यान तथा कायोत्सर्ग में लीन रहता है । यह साधना विशेष संहननयुक्त साधक के द्वारा विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न होने के अनन्तर ही की जा सकती है।
जिनमार्ग-वीतराग द्वारा प्ररुपित धर्म
ज्ञान-जानना सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ के सामान्य धर्मों को गौण कर केवल विशेष धर्मों को ग्रहण करना।
ज्ञानावरणीय-आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । तत्त्व-हार्द, पदार्थ । तीर्थकर-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले आप्त पुरुष ।
तीर्थकर नामकर्म-जिस नाम कर्म के उदय से जीव तीर्थकर रूप में उत्पन्न होता है।
तीर्थ-जिससे संसार समुद्रतिरा जा सके । तीर्थंकरों का उपदेश, उनको धारण करने वाले गणधर व ज्ञान, दर्शन, चारित्र को धारण करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है ।
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