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पारिभाषिक शब्द-कोश : परिशिष्ट ४
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गच्छ-श्रमणों का समुदाय, अथवा एक आचार्य का परिवार गति-एक योनि को छोड़कर दूसरी योनि में जाना । गण--समान आचार व्यवहार वाले साधुओं का समूह
गणधर-लोकोत्तर ज्ञान-दर्शन आदि गुणों के गण को धारण करने वाले, तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य, जो उनकी वाणी सूत्र रूप में संकलित करते हैं।
गाथापति- गृहपति-विशाल ऋद्धिसम्पन्न परिवार का स्वामी। वह व्यक्ति जिसके यहां पर कृषि और व्यवसाय ये दोनों कार्य होते हैं।
गुणरत्न संवत्सर तप-जिस तप से विशेष निर्जरा होती है । या जिस तप में निर्जरा रूप विशेष रत्नों से वार्षिक समय बीतता है । इस क्रम में तपोदिन एक वर्ष से कुछ अधिक होते हैं, अतः वह संवत्सर कहलाता है । इसके क्रम में प्रथम मास में एकान्तर उपवास, द्वितीय मास में बेला, इस प्रकार क्रमशः बढ़ते हुए सोलह मास में सोलह-सोलह का तप किया जाता है । तपः काल में दिन में उत्कुटकासन से सूर्याभिमुख होकर आतापना ली जाती है, और रात्रि में वीरासन से वस्त्र रहित रहा जाता है । तप में २३ मास ७ दिन लगते हैं और इस अवधि में ७३ दिन पारणे के होते हैं।
ग्यारह अंग-अंग सूत्र ग्यारह हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं
(१) आचारांग, (२) सूत्रकृताङ्ग (३) स्थानाङ्ग (४) समवायाङ्ग, (५) भगवती, (६) ज्ञाताधर्म कथा (७) उपासक दशांग, (८) अन्तकृत्दशांग, (8) अनुत्तरोपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक ।
गोचरी-जैन श्रमणों का अनेक घरों से विधिवत् आहार गवेषण भिक्षाटन, माधुकरी।
गोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उच्चनीच शब्दों से अभिहित किया जाय । जाति, कुल, बल, रूप, तपस्या, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य प्रभृति का अहंकार न करना, उच्च गोत्र कर्म के बंध का निमित्त बनता है और इनका अहंकार करने से नीच गोत्र कर्म बंध होता है।
घातीकर्म-जैन दृष्टि से संसार परिभ्रमण का हेतु कर्म है । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, और योग के निमित्त से जब आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है तब जिस क्षेत्र में आत्म-प्रदेश होते हैं, उसी प्रदेश में रहे हुए अनन्तानन्त कर्मयोग्य (कार्मण जाति के) पुद्गल आत्म-प्रदेशों के साथ दूधपानीवत् सम्बन्धित हो जाते हैं । उन पुद्गलों को कर्म कहा जाता है । कर्म के घाती और अघाती ये दो भेद हैं। आत्मा के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुणों
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